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शिक्षा को धंधा बनाने पर लगी रोक

निर्मल यादव४ मई २०१६

भारत में सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों निजी शिक्षा संस्थानों में कैपिटेशन फीस पर रोक लगा दी और कहा कि शिक्षा को धंधा बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती. निर्मल यादव इसे देर से लिया गया सही फैसला मानते हैं.

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Indien Schule
तस्वीर: picture-alliance/Robert Hardin

भारत में शिक्षा का बाजारीकरण गरमागरम मुद्दा बना हुआ है. शिक्षा की पहुंच के दायरे में हर आम और खास को पहुंचाने के लिए सरकार ने इसके निजीकरण को भरपूर बढ़ावा दिया लेकिन निजी शिक्षण संस्थाओं ने इसका दुरुपोग कर तमाम तरह के शुल्क के नाम पर शिक्षा को वसूली और मुनाफाखोरी का जरिया बना दिया है. देश के सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाते हुए दान के रूप में वसूली जाने वाली कैपिटेशन फीस को अवैध करार दिया.

दान का खेल

निजी स्कूलों में दाखिले के इच्छुक बच्चों के अभिभावकों के लिए दान का खेल मुसीबत का सबब बन गया है. स्कूल बच्चे को दाखिला देने से पहले तमाम तरह की फीस के अलावा दान के रूप में भारी भरकम रकम एंठते हैं. दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में नामी गिरामी स्कूलों से शुरू हुआ दान का यह प्रपंच अब छोटे शहरों में भी पहुंच गया है. हालत यह हो गई है कि विभिन्न राज्यों में हाईकोर्ट द्वारा दान के नाम पर वसूली जा रही कैपिटेशन फीस पर जब रोक लगाई गई तो इन स्कूलों ने अब पैसे के बजाय स्कूल की इमारत में कुछ कमरे बनवाने, पंखे आदि सुविधाएं मुहैया कराने जैसी गतिविधियां शुरु कर दी.

Indien Schüler
तस्वीर: picture-alliance/dpa

दिल्ली सरकार द्वारा मुहैया कराई गई रियायती जमीन पर बने निजी स्कूलों की पिछले एक साल से चल रही मनमानी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पेश याचिका पर अदालत की संविधान पीठ ने कैपिटेशन फीस को अवैध करार दिया. कोर्ट ने स्कूलों की मनमानी को समूचे शिक्षा तंत्र के लिए खतरनाक करार देते हुए कहा कि शिक्षा को धंधा बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. इस दौरान अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट के उन तमाम आदेशों का हवाला देते हुए कहा कि शिक्षा के निजीकरण को व्यवसाय करने के अवसर के रूप में नहीं देखा जा सकता है.

समस्या की भयावह तस्वीर

दिल्ली में 1980 और 1990 के दशक में डीपीएस सोसाइटी सहित तमाम नामी संस्थाओं को करोड़ों रुपये की जमीन दिल्ली सरकार ने डीडीए से खरीदकर महज एक रुपये में स्कूल खोलने के लिए दी थी. यह सिलसिला अभी भी जारी है. लेकिन इन स्कूलों ने शिक्षा के अधिकार कानून को ताक पर रखकर दाखिला प्रक्रिया में सरकार के दखल को नामंजूर करते हुए अभिभावकों से मनमानी वसूली जारी रखी. समय समय पर इन मामलों को हाईकोर्ट में उठाने वाले वकील अशोक अग्रवाल बताते हैं कि स्कूलों पर सरकार की पकड़ नहीं होने की मुख्य वजह सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार है.

Indien Schüler
तस्वीर: picture-alliance/dpa

नतीजतन यह बीमारी नामी स्कूलों की शाखाएं देश के अन्य शहरों में फैलने के साथ छोटे शहरों तक फैल गई. हालत यह हो गई है कि शहरों में मामूली से स्कूलों में भी नर्सरी से लेकर अन्य कक्षाओं में बच्चों का दाखिला कराना नामुमकिन हो गया है. लाखों रुपये फीस देने के बाद भी दाखिले की गारंटी कोई नहीं ले सकता है.

फैसले का आधार

अग्रवाल के मुताबिक कैपिटेशन फीस का जाल बेहद जटिल हो जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट को इतना सख्त फैसला सुनाना पड़ा. अदालत ने अपने फैसले में सिर्फ शिक्षा के मौलिक अधिकार होने को आधार बनाया है. मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी सुनवाई पांच जजों वाली संविधान पीठ से करानी पड़ी. अदालत ने कहा कि शिक्षा का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 (1) जी के तहत मौलिक अधिकार है. इसलिए शिक्षा के नाम पर किसी भी व्यक्ति या संस्था को व्यवसाय करने की छूट नहीं दी जा सकती है. अदालत ने निजी स्कूल मालिकों से दो टूक कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में वही लोग आएं जो नो प्रोफिट नो लॉस के आधार पर काम करने को तैयार हों. जिनका मकसद सिर्फ मुनाफा कमाना है वे शिक्षा को छोड़ कर अपने लिए कोई दूसरा काम देख लें.

सही मायने में अगर देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देर से दिया गया सही फैसला है. इसके असर को लेकर मन में शक इसलिए पैदा होता है कि जिन संस्थाओं ने शिक्षा के माफियातंत्र को पनपने का मौका दिया है उनके संचालन में देश को चलाने वाले सियासददानों का प्रत्यक्ष या परोक्ष दखल राह की सबसे बड़ी बाधा बनेगी. देश भर में लगभग सभी बड़ी और नामी शिक्षण संस्थाएं नेताओं और नौकरशाहों से लेकर उद्योगपतियों के वरदहस्त में चल रही हैं. इसलिए समस्या की जड़ में जो लोग बैठे हैं दरअसल समस्या को खत्म करने की सीधे तौर पर जिम्मेदारी भी उन्हीं की है. ऐसे में चोर को थानेदार बनाने से काम शायद अब नहीं चलेगा.