शहर, समाधान हैं या परेशानी
क्या शहर और वहां रहने वाले नेता व अधिकारी, गांवों का हक मारते हैं? एक नजर ऐसे ही मुद्दों पर जो इस भेदभाव को दिखाते हैं.
पानी
भारत की करीब 36 फीसदी आबादी शहरों में रहती है. बाकी 64 फीसदी लोग गांवों या कस्बों में रहते हैं. इसके बावजूद ज्यादातर गांवों में आज भी पेयजल की सप्लाई नहीं है.
बिजली
प्रति व्यक्ति बिजली की खपत देखी जाए तो गांव काफी पीछे हैं. लेकिन इसके बावजूद बिजली कटौती की सबसे ज्यादा मार ग्रामीण इलाकों पर ही पड़ती है. ज्यादातर राज्य सरकारें नेशनल ग्रिड में बिजली तो खरीदती हैं, लेकिन सिर्फ शहरों की जरूरत के मुताबिक.
कूड़ा
स्वच्छ भारत के नारे के इतर शहरों की एक कड़वी सच्चाई कूड़ा भी है. एक तिहाई आबादी को जगह देने वाले शहर दो-तिहाई कूड़ा फैला रहे हैं. कचरा प्रबंधन तंत्र के अभाव में कूड़े छिपाने पर जोर दिया जाने लगा है.
कृषि
दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरू समेत हजारों मझोले या बड़े शहर बेकाबू ढंग से फैलते जा रहे हैं. ये शहर अपने आस पास मौजूद खेती योग्य जमीन को निगल रहे हैं. नतीजा, एक तरफ कृषि योग्य भूमि घट रही है तो दूसरी तरफ आधारभूत ढांचे के विस्तार का दबाव बना रहता है. छोटे किसान मजदूर बनने पर मजबूर हुए हैं.
स्वास्थ्य
शहरों में रहने वाले हर चौथे भारतीय का ताल्लुक किसी न किसी गांव से है. वे जानते हैं कि आज भी ज्यादातर गांवों में अगर किसी की तबियत ज्यादा खराब हो जाए तो जान बचानी मुश्किल हो जाती है. इलाज के लिए शहर जाना पड़ता है. पैसे तो खर्च होते ही हैं, धक्के भी खाने पड़ते हैं.
शिक्षा
शहरों में जहां प्राइवेट स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह फैले, वहीं गांवों में शिक्षा का ढांचा आज भी जर्जर है. ज्यादातर गांवों में आज भी सरकारी प्राइमरी स्कूल या हाई स्कूल के अलावा और कोई चारा नहीं है.
रोजगार
बीते सात दशकों में रोजगार सृजन को लेकर गांवों की अनदेखी की गई है. जवाहरलाल नेहरू ने पॉलीटेक्निक खोलकर गांवों को तकनीकी विकास से जोड़ने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन बेहतर तालमेल के अभाव और बाद की सरकारों की अनदेखी के चलते यह पहल नाकाम सी रही.
परिवहन
यह बात भी सच है कि बीते दशकों में राज्य सरकारें गांवों की परिवहन समस्याओं के प्रति उदासीन रही. टाइम टेबल के मुताबिक सार्वजनिक परिवहन सेवा के अभाव में गांव जीप, टैक्सी या तिपहिया डग्गामार वाहनों से भर गए.
शराब
भारत के कई ग्रामीण इलाकों में भले ही अच्छे स्कूल या अस्पताल न दिखें, लेकिन देशी या अंग्रेजी शराब के ठेके जरूर मिल जाएंगे. यह दिखाता है कि राज्य सरकारें आबकारी को लेकर कितनी लालची होती हैं.
एक नया संघर्ष
अब शहरों की थकान भरी जिंदगी से ऊब चुके लोग गांवों का रुख करने लगे हैं. अमीर भी गांवों में निवेश करने की कोशिशें कर रहे हैं. इसके चलते गांवों में समीकरण बदल रहे हैं, कई जगहों पर असंतोष और टकराव भी सामने आ रहा है.