विश्व नागरिक विली ब्रांट
१८ दिसम्बर २०१३7 दिसंबर 1970 को विली ब्रांट जब पोलैंड के लिए रवाना हुए, तो इतिहास बदलने वाला था. वहां उन्हें बलप्रयोग के त्याग और युद्ध के बाद की सीमा को मान्यता देने के समझौते पर दस्तखत करने थे. द्वितीय विश्व युद्ध के 25 साल गुजर जाने के बावजूद उनकी राह आसान नहीं थी. वे पहले जर्मन चांसलर थे जो एक ऐसे मुल्क जा रहे थे, जिसपर जर्मनी ने बर्बर हमला किया था और कब्जा कर लिया था. राजधानी वॉरसा में नाजियों ने लाखों यहूदियों को घेटो में बंद कर दिया, यातना शिविरों में भेजा, मौत के घाट उतारा और शहर को पूरी तरह नष्ट कर दिया था. उन्हें पता था कि पोलैंडवासियों को मेलजोल के लिए मनाने के लिए कुछ खास चेष्टा की जरूरत होगी. और उन्हें इसके लिए सही मौका भी मिला.
वॉरसा घेटो के वीरों के स्मारक पर फूलमालाएं चढ़ाते हुए ब्रांट ने शहीदों के लिए सिर्फ सिर ही नहीं झुकाया बल्कि घुटनों पर बैठ गए और एक मिनट से ज्यादा तक सोच की मुद्रा में बैठे रहे. वहां मौजूद लोगों में खामोशी छायी थी. सिर्फ फोटो खिंचने की आवाजें आ रही थी. वॉरसा में घुटने टेकने की ब्रांट की तस्वीरें पूरी दुनिया में गईं और अब वह जर्मन इतिहास की सबसे प्रसिद्ध घटनाओं में शामिल है.
यहूदी होने के कारण नाजियों से बचकर फ्रांस भागने वाले बुद्धिजीवी अल्फ्रेड ग्रोसर इस घटना के बारे में कहते हैं, "हिटलर के खिलाफ जीवन भर लड़ने वाले ब्रांट ने अतीत का बोझ, अपराध नहीं, अपने कंधों पर ले लिया." जर्मनी में और पोलैंड में बहुत से लोगों ने ब्रांट की आलोचना की, लेकिन दुनिया ने देखा कि विली ब्रांट एक अलग, शांतिपूर्ण जर्मनी की पहचान हैं. एक साल बाद ब्रांट को ऑस्लो में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
20वीं सदी की पौध
18 दिसंबर 1913 को उत्तरी जर्मन शहर लुबेक में हर्बर्ट फ्राम के नाम से पैदा हुए ब्रांट का सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी एसपीडी से परिचय उनके दादा ने कराया. बाद में वे रैडिकल समाजवादी लेबर पार्टी के करीब गए, जिस पर हिटलर के सत्ता में आते ही प्रतिबंध लगा दिया गया. वे विली ब्रांट के छद्म नाम से भागकर नॉर्वे चले गए और वहां से नाजियों के खिलाफ संघर्ष करते रहे. उन्होंने स्पेन के गृहयुद्ध में भी हिस्सा लिया.
1947 में ब्रांट जर्मनी लौटे जहां उन्हें उनके 12 साल के निर्वासन पर प्रतिद्वंद्वी राजनीतिज्ञों के कटाक्ष सहने पड़े. सीएसयू के फ्रांस योजेफ श्ट्राउस ने यह कह कर उन्हें विश्वासघाती दिखाने की कोशिश की, "आप 12 साल तक बाहर क्या कर रहे थे, हमें तो पता है कि हम अंदर में क्या कर रहे थे." लेकिन विरोध और कटाक्षों के बावजूद 1957 में वे बर्लिन का महापौर बनने में कामयाब हुए. विजेता देशों के प्रभाव में होने के कारण इस पद पर काफी कूटनीतिक हुनर की जरूरत हुआ करती थी, लेकिन यह सुर्खियां भी देता था.
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने 1963 में उनके बगल में खड़े होकर खुद को बर्लिनवासी बताया था. 1966 में ब्रांट जर्मनी की पहली महागठबंधन सरकार में विदेश मंत्री बने और 1969 में देश के पहले सोशल डेमोक्रैटिक चांसलर. बर्लिन की दीवार उनके महापौर रहते बनी और वे कुछ नहीं कर पाए. लेकिन अपने ओस्टपोलिटिक के जरिए उन्होंने पूरब और पश्चिम को करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1989 में बर्लिन दीवार के गिरने और एक साल बाद जर्मनी के एकीकरण का श्रेय उन्हें भी जाता है. युद्ध और शांति के बीच 20वीं सदी का एक जीवन.
उत्तर दक्षिण का पुल
गयाना में जन्मे और लंबे समय तक राष्ट्रकुल के महासचिव रहे श्रीदत्त रामफल कहते हैं, "विली ब्रांट राष्ट्रीय पहचान, नस्ल और धर्म से ऊपर थे. वे सही मायनों में विश्व नागरिक थे." रामफल का कहना है कि ब्रांट का मानना था कि विश्व को बेहतर बनाना सबका कर्तव्य है. 70 के दशक से वे ब्रांट के साथ उत्तर और दक्षिण को करीब लाने में निकट सहयोग कर रहे थे. विश्व बैंक के प्रमुख रॉबर्ट मैकनमारा ने अंतरराष्ट्रीय विकास के मुद्दों पर एक स्वतंत्र आयोग बनाया, जिसका लक्ष्य उस समय उत्तर और दक्षिण के गतिरोध को तोड़ना था. इसकी अध्यक्षता के लिए पूरब और पश्चिम के बीच मेल कराने का अनुभव रखने वाले ब्रांट से बेहतर कौन हो सकता था. इस आयोग में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे एलके झा भी थे.
खुद ब्रांट कमीशन के सदस्य रहे रामफल कहते हैं, "अफ्रीका से लेकर एशिया के विकासशील देशों में उन्हें स्वीकार किया जाता था, उनका सम्मान किया जाता था. ब्रांट पर भरोसा था." उत्तर दक्षिण आयोग में 18 विकसित और विकासशील देशों के प्रतिनिधियों ने एक न्यायोचित विश्व के लिए साझा रास्ता खोजने की कोशिश की. रामफल के अनुसार अक्सर ऐसा मौका आता था, जब लगता था कि सहमति नहीं हो सकती, "लेकिन ब्रांट में दोनों पक्षों को यह जताने की क्षमता थी कि गरीबी और अमीरी में बंटे विश्व के विभाजन का अंत उनके ही हित में है."
आयोग ने 1980 और 1982 में दो रिपोर्ट पेश की, जिनमें न्यायोचित अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की मांग की गई. रामफल कहते हैं कि ब्रांट कमीशन की मांगें आज भी बहुत प्रासंगिक हैं, निरस्त्रीकरण, पर्यावरण, आबादी, तकनीक ट्रांसफर, महिला अधिकार और संरक्षणवाद. कमीशन भले ही उस समय अंतरराष्ट्रीय विवादों के कारण सफल न हो पाया हो, लेकिन उसने ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत की जिसने उत्तर और दक्षिण के देशों के बीच सौदेबाजी के तरीकों को सदा के लिए बदल दिया.
रिपोर्ट: सैरा युडिथ होफमन/एमजे
संपादन: ईशा भाटिया