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वर्दी वालों का रमजान

१० जुलाई २०१३

जर्मन सेना में ढाई लाख सैनिक हैं. उसके करीब 1000 मुस्लिम जवानों को रमजान के दौरान नौकरी और रोजे में तालमेल बिठाना होता है. सेना की कठिन ड्यूटी के दौरान यह आसान नहीं होता.

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तस्वीर: Ulrike Hummel

चाउकी अकील लॉजिस्टिक बटालियन में सार्जेंट हैं. मालों के ट्रांसपोर्ट में उन पर जवानों की भी जिम्मेदारी होती है. 30 वर्षीय अकील कहते हैं कि मुश्किल मौकों पर एकाग्रता में कमी की कोई जगह नहीं होती. लेकिन रमजान के महीने में इसी का खतरा होगा. रमजान के दौरान सूर्योदय से सूर्यास्त तक इस्लाम में रोजे रखने की बात है, यानी इस दौरान न कुछ खाया जा सकता है, न पीया. रमजान जब गर्मियों में पड़ता है तो दिन लंबे होते हैं और पूरा दिन खाये-पिये बिना रहना खासा मुश्किल होता है.

मुश्किल फैसला

"खास कर विदेशी तैनातियों के दौरान मुश्किल होती है. मैंने फैसला किया है कि अफगानिस्तान में रोजा रखना मेरी सोच के साथ मेल नहीं खाता." - अकील ने साफ किया. अफगानिस्तान में तैनात जर्मन सैनिकों को वहां सिर्फ असह्य गर्मी ही बर्दाश्त नहीं करनी पड़ती, बल्कि शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बोझ भी सहना पड़ता है. इसके अलावा पराई संस्कृति के प्रति संवेदनशील भी रहना पड़ता है.

Bundeswehr Auslandseinsatz Afghanistan
भारी शारीरिक और मानसिक दबावतस्वीर: picture alliance / JOKER

रोजे रखें या न रखें, मुस्लिम सैनिकों के लिए यह अक्सर मुश्किल फैसला होता है. इसे खुद लेना पड़ता है. रोजा रखना इस्लाम के पांच पायों में गिना जाता है और इसे हर मुसलमान का कर्तव्य बताया जाता है. दूसरी ओर कोलोन मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर मिषाएल फाउस्ट का कहना है कि गंभीर परिस्थितियों में खाना पीना छोड़ना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकता है, "कठिन अभियानों पर चुस्ती जरूरी होती है, उसके लिए कम से कम पानी पीना आवश्यक है." यदि पहले ही कैलोरी ले ली गई हो, तो खाने के बिना भी काम चल सकता है.

धार्मिक कर्तव्य

आखिरी फैसला खुद लेना होता है. इस्लाम विशेषज्ञ इरोल पुरलू कहते हैं कि कुछ मामलों में अपवाद भी है, "बीमार और यात्रा कर रहे लोग, गर्भवती महिलाएं और बच्चों को दूध पिलाने वाली माएं और बुजुर्ग रोजा छोड़ सकते हैं और बाद में कभी उसे पूरा कर सकते हैं. रोजे का लक्ष्य लोगों का स्वास्थ्य है, न कि उसे नुकसान पहुंचाना."

Ramadan Fasten Imam Erol Pürlü
इरोल पुरलूतस्वीर: Ulrike Hummel

इस साल चाउकी अकील जर्मनी में ऊना की छावनी में तैनात हैं. यहां उनकी ड्यूटी नियमित रूप से कसरत करने और फायरिंग का अभ्यास करने की है. अगर रोजाना रोजे का समय 18 घंटे से ज्यादा हो, जैसा इस साल हो सकता है, तो यह भी एक तरह की चुनौती है.

हलाल खाना

रमजान के महीने में रोजमर्रे का रूटीन भी बदलना पड़ता है. अकील का कहना है, "स्वाभाविक रूप से बुंडेसवेयर में रोजे रखना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि हमारा कॉमन किचन है. इसलिए खाने के समय के बारे में पहले से बात करनी होती है." और चूंकि हर दिन सूर्यास्त का समय एक दो मिनट घटता जाता है, कैंटीन के कर्मचारियों को लचीलापन दिखाना पड़ता है. सार्जेंट अकील कहते हैं कि इसमें कोई मुश्किल नहीं होती.

Bundeswehr Kantine Kinshasa
कैंटीन में अलग अलग खानातस्वीर: picture-alliance/dpa

खाने के मामले में भी बुंडेसवेयर ने कानूनी दायरे में रहते हुए बदलाव किया है. मुस्लिम जवानों को ऐसा खाना नहीं दिया जाता जिसमें पोर्क या अलकोहल हो. लेकिन हलाल मीट मिलना अभी भी समस्या है. अकील कहते हैं कि बुंडेसवेयर के किचन में यह नहीं मिलता क्योंकि जानवरों को हलाल तरीके से जिबह करना जर्मनी में प्रतिबंधित है.

अलग कांटा छुरी

कुल मिलाकर जर्मन सेना की रसोई देश के दूसरे बड़े किचन की तुलना में बहुत आगे है. अकील बताते हैं, "यहां ऊना छावनी में हमारे यहां खाना अलग अलग बनाया जाता है." जर्मन सेना के रसोईए अलग पतीलों और कांटे छुरी का इस्तेमाल करते हैं और इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि मीट एक साथ नहीं रखा जाए. "और हम जब एक साथ बारबेक्यू करने जाते हैं तो कुक इस बात का ख्याल रखते हैं कि चिकन और पोर्क का मीट एक साथ न मिले."

यदि ड्यूटी इजाजत दे तो रमजान के महीने में अकील इफ्तार के वक्त परिवार के साथ रहना चाहते हैं. रमजान सिर्फ त्याग का महीना नहीं है, यह "उम्मा" का भी महीना है, दुनिया भर में मुसलमानों के साथ होने का. रमजान का बड़ा सामाजिक महत्व भी है. रोजा खोलने की रस्म जितना संभव हो साथ मिल जुल कर की जाती है. रोजे का उद्देश्य यह भी है कि लोग भूख प्यास का सामना करने वाले गरीबों की व्यथा समझ सकें और भाईचारे की भावना विकसित कर सकें.

रिपोर्टः उलरीके हिम्मेल/एमजे

संपादन: अनवर जे अशरफ

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