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राजनीति की भेंट चढ़ता छात्रों का हित

२७ जून २०१४

भारत में हर फैसला राजनीति से प्रेरित होता है. शिक्षा के प्रतिष्ठित केन्द्र दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साल के ग्रैजुएशन कोर्स पर विवाद भी इसे साबित कर रहा है.

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तस्वीर: Reuters

डीयू के कुलपति प्रो. दिनेश सिंह ने मनमोहन सिंह की सरकार की पहल पर स्नातक पाठ्यक्रम को तीन के बजाय चार साल का करने की योजना को आगे बढ़ाया था. तत्कालीन सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरुप डीयू सहित देश के कुछ चुनिंदा शिक्षण संस्थानों में चार वर्षीय स्नातक कोर्स लागू करने का फैसला किया था. प्रो. सिंह इस योजना को डिप्लोमा और अन्य प्रोफेशनल कोर्स के साथ फुलटाइम ग्रेजुएशन कोर्स के लिए पिछले एक साल से आगे बढ़ा रहे थे.

उनके इस फैसले का शिक्षक संघ और नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के करीबी छात्र संगठन एबीवीपी का शुरु से ही विरोध कर रहे थे. फिर भी भारत में पाठ्यक्रमों में बदलाव आदि को मंजूरी देने वाले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यूजीसी ने तमाम विरोधों को दरकिनार कर साल भर पहले ही डीयू की स्वायत्तता का हवाला देकर कुलपति की योजना को मंजूरी दे दी थी.

ऐसा नहीं है कि डीयू यह फैसला करने वाला पहला संगठन है. शिक्षाविद अनिल सदगोपाल कहते हैं कि बंगलुरु विश्वविद्यालय और दिल्ली स्थित अंबेडकर विश्वविद्यालय में भी यह व्यवस्था लागू की गई है. ऐसे में हंगामा सिर्फ डीयू को लेकर है. दरअसल डीयू फुलटाइम ग्रेजुएशन कोर्स को चार साल का करने जा रहा था जबकि अन्य संस्थानों में यह व्यवस्था पार्टटाइम प्रोफेशनल कोर्स में लागू की गई है.

शिक्षा में सियासत

कुल मिलाकर मामला अब अकादमिक स्तर से हटकर विशुद्ध रुप से सियासी शक्ल ले चुका है. इसके पीछे दिल्ली की दहलीज पर खड़े विधानसभा के मध्यावधि चुनाव हैं. दरअसल केन्द्र में सत्तारुढ़ भाजपा ने पिछले साल विधानसभा चुनाव के दौरान अपने घोषणापत्र में नई व्यवस्था को लागू नहीं होने देने का वादा किया था. अब जब कि पार्टी सत्ता में है तो उसने यह वादा पूरा कर प्रवेश प्रक्रिया शुरु होने के ठीक एक दिन पहले यूजीसी को ढाल बनाकर चार साल के बजाय तीन साल के कोर्स में दाखिला प्रक्रिया शुरु करने का आदेश जारी कर दिया.

यूजीसी के अध्यक्ष वेद प्रकाश ने बेझिझक सरकार के आगे घुटने टेक कर प्रो. सिंह को नई व्यवस्था को लागू करने का फरमान जारी कर दिया. शिक्षा जगत में इसे राजनीति का निम्नतम दांवपेंच ही कहेंगे कि प्रो. सिंह ने भी मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का विरोध करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर को ढाल बना लिया है. आपसी हित और अहंकार की इस सियासी नूराकुश्ती के बीच छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है.

Indien Parteien Smriti Irani von Bharatiya Janata Party
मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानीतस्वीर: PRAKASH SINGH/AFP/Getty Images

बढ़ता सवालों का घेरा

पूरा मामला अब नियम कानूनों के सवालों में घिर गया है. सवाल है कि क्या यूजीसी इस तरह से किसी केन्द्रीय स्वायत्त विश्वविद्यालय को आदेश जारी कर सकता है. इसके अलावा कुलपति के कानूनी क्षेत्राधिकार की सीमा क्या है? क्या कुलपति सरकार का आदेश मानने को बाध्य हैं और क्या सरकार इस तरह से अपने फैसले को पलट सकती है? शिक्षा मामलों के वकील अशोक अग्रवाल का दावा है कि यूजीसी एक्ट के तहत यूजीसी केन्द्र सरकार के अधीन किसी स्वायत्त संस्था को आदेश नहीं बल्कि परामर्श जारी कर सकती है.

किसी कोर्स को यूजीसी द्वारा मंजूरी देने के बाद परामर्श ही एकमात्र विकल्प है. जबकि कुलपति ऐसे परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है लेकिन उनसे आयोग की सलाह को मानने की अपेक्षा की जाती है. यूजीसी और किसी संस्था के बीच ऐसा टकराव संभवतः पहली बार दिखा है. गेंद अब कोर्ट के पाले में है लेकिन साफ हो गया है कि अमरीकी बाजारवादी नीति के दबाव में किए गए पूर्ववर्ती सरकार के इस फैसले को पलटने के बाद न सिर्फ डीयू की साख पर बट्टा लगा है बल्कि हजारों छात्रों का भविष्य भी अधर में लटक गया है.

हितों का टकराव

जानकारों की मानें तो यह सिर्फ सियासी हितों से जुड़ा मामला नहीं है. इसमें सरकार और डीयू प्रशासन के बीच आर्थिक वैचारिक हितों का भी टकराव निहित है. दरअसल हाल ही में डीयू प्रशासन ने नई व्यवस्था लागू होने पर शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए 4500 पदों पर भर्ती शुरु कर दी थी. भर्ती प्रक्रिया अंतिम दौर में है और सिर्फ नियुक्तियां होना बाकी है. नई व्यवस्था को भंग करने से भर्ती प्रक्रिया भी लटक गई है.

नई सरकार के गठन के बाद डीयू को दक्षिणपंथी विचारधारा का गढ़ बनाने के लिए भी भर्ती प्रक्रिया को हथियार बनाने की चर्चाएं जोरों पर हैं. मोदी सरकार का एजेंडा है कि जिस तरह जेएनयू वामपंथ का गढ़ है उसी तरह डीयू दक्षिणपंथी विचारधारा का केन्द्र बन जाए और यह मकसद शिक्षकों की भर्ती से ही पूरा होगा.

नई व्यवस्था का विरोध कर रहे शिक्षकों की मुखालफत का जवाब देने वाले कह रहे हैं कि चार साल वाली व्यवस्था में छात्रों के साथ शिक्षकों को भी उतनी ही मेहनत करने की बाध्यता सुनिश्चित थी. इससे बचने के लिए ही शिक्षक संघ इसका विरोध कर रहा है. हकीकत यह है कि सिर्फ अपना करियर संवारने की मंशा रखने वाले ज्यादातर छात्र नई परिपाटी का शुरु से ही स्वागत कर रहे हैं. ऐसे में सियासत का अखाड़ा बन चुके डीयू कैंपस में छात्रों की मंशा जानने की फुर्सत किसी को नहीं है.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा