यहां महिलाओं की चलती है
लड़कियों के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार की खबरों के बीच भारत में गिने चुने राज्य ऐसे हैं जहां पुरुष ज्यादा हक की मांग कर रहे हैं. केरल की तरह मेघालय के खासी लोगों में भी मातृसत्तात्मक परंपरा है.
जरा हट के
बादलों के घर, मेघालय में रहने वाले खासी मातृसत्तात्मक परंपरा में रहते हैं. राज्य के सबसे बड़े खासी समुदाय में नाम और संपत्ति मां से बेटी के नाम की जाती हैं.
मां जैसी ही
खासी परिवार में सबसे छोटी बेटी को विरासत का सबसे ज्यादा हिस्सा मिलता है और उसी को माता पिता, अविवाहित भाई बहनों और संपत्ति की देखभाल की करनी पड़ती है. छोटी बेटी को खातडुह कहा जाता है, वह एक ऐसी व्यक्ति बन जाती है जिसका घर परिवार के हर सदस्य के लिए खुला है.
धंधे पर नजर
1997 में खासी सोशल कस्टम ऑफ लिनियेज एक्ट पास किया गया था. इससे मातृसत्तात्मक संरचना का संरक्षण होता है. मेघालय में स्थानीय बाजार महिलाएं ही चलाती हैं और आर्थिक लेन देन भी वही संभालती हैं.
युद्ध के बाद
कुछ लोग बताते हैं मातृसत्तात्मक परंपरा तब शुरू हुई जब खासी पुरुष युद्ध पर गए और पीछे महिलाओं को छोड़ गए. वहीं दूसरों का कहना है कि ये परंपरा इसलिए शुरू हुई कि खासी महिलाओं के कई जीवनसाथी होते हैं. ऐसे में सवाल पैदा होता है, बच्चे का पिता कौन...
पुरुषों की मुक्ति
आज खासी पुरुष खेलों में काम करते हैं और घर का कामकाज संभालते हैं. हाल के दिनों में कुछ लोग मातृसत्तात्मकता का विरोध कर रहे हैं. सिंगखोंग रिम्पेई थिमेई (एसआरटी) मेन्स लिबरेशन ग्रुप है. ये 1990 में बनाया गया. समाज से निष्कासन के डर से इस ग्रुप के सदस्य पहचान नहीं दिखाना चाहते.
नाम में क्या रखा है?
खासी बच्चों को मां के परिवार का नाम मिलता है. इससे महिला और बच्चा दोनों को समाज में स्थान मिलता है. भले ही महिला फिर से शादी करे या फिर बिना शादी के उसका बच्चा हो.
कन्या प्रधान!
जहां भारत में लड़कों के पीछे परिवार भागते हैं वहीं एसआरटी का कहना है कि लड़कों के पैदा होने पर यहां खुशी नहीं मनाई जाती. अक्सर पुरुष हताश हो कर आलसी हो जाते हैं या शराब और नशे के आदी हो जाते हैं.
कौन ताकतवर
भले ही समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति मजबूत हो, राजनीति में अभी तक वे नहीं पहुंच पाई हैं. गांव के मुखिया अभी भी पुरुष ही होते हैं. 60 सदस्यों वाली विधानसभा में चार ही महिला विधायक हैं.