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मौसमी महादैत्य एल नीन्यो और ला नीना

फ़ोल्कर म्रसेक / राम यादव२७ नवम्बर २००८

दो स्पेनी नाम मौसम विज्ञान की शब्दावली का अभिन्न अंग बन गये हैं--एल नीन्यो (El Nino) और ला नीना (La Nina). ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत महासागर में पैदा होने वाले गरम और ठंडे मौसमी प्रभावों को इन्हीं नामों से पुकारा जाता है.

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1998 में पेरू में एल नीन्यो की प्रलय लीलातस्वीर: picture-alliance/dpa

दोनो अदल-बदल कर आते हैं और दोनो को पृथ्वी पर की जलवायु में उतार-चढ़ाव लाने वाले दो सबसे शक्तिशाली प्रकृतिक महादैत्य माना जाता है. दोनो ने 20 वीं सदी में अपनी प्रचंडता के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिये, हालाँकि इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन उन्हीं की कारस्तानी है.

ऑस्ट्रेलिया में मेलबॉर्न विश्वविद्यालय की जोएल गेर्जिस ने तीन वर्षों तक इसी की खोजबीन की है. प्रशांत क्षेत्रीय जलवायु संबंधी 16 वीं सदी तक की दर्जनों पुरानी फ़ाइलें, अभिलेख और रेकॉर्ड छान मारे हैं.

"मैंने वाषिक रिंगों वाले अधिकतर पेड़ों के अभिलेखों को पढ़ा, साथ ही समुद्री मूँगों संबंधी आंकड़ों, एंडीज़ पर्वतों वाली बर्फ की बोरिंग से प्राप्त बर्फ के एक सिलिंडर और भारत तथा चीन में पड़े सूखों की ऐतिहसिक फ़ाइलें भी देखीं. उदाहरण के लिए, न्यूज़ीलैंड की एक पुरानी पेड़-प्रजाति है, जिसके बारे में काफ़ी आँकड़े उपलब्ध हैं. जब कभी सूखी, यानी बहुत कम नमी वाली ठंड का समय होता था, तब उस के पेड़ों के तनों में बनने वाली वार्षिक रिंगे चौड़ी होती थीं. ऐसे समय एल नीन्यो वाले वर्ष होते थे. लेकिन, जब कभी ला नीना का दबदबा होता था और न्यूज़ीलैंड में नमी और गर्मी बढ़ जाती थी, तब ये वार्षिक रिंगें पतली होती थीं. इन अवलोकनों के आधार पर मैंने जलवायु परिवर्तनों को दुबारा गढ़ने का प्रयास किया."

Jahresringe eines gefällten Baumes
पेड़ के तने में बनी वार्षिक रिंगें मौसमी प्रभावों की छाप दिखाती हैंतस्वीर: BilderBox

पेड़ों के तनों में जलवायु की हस्तरेखाएँ

तीन वर्षों के गहन अध्ययन से निकले परिणाम भी उतने ही चौंकाने वाले थे. 1525 के बाद से हमारी धरती ने कुल 90 एल नीन्यो और 80 ला नीना प्रभाव झेले हैं. सबसे तीव्र प्रभावों की संख्या सबसे अंत में बढ़ती गयी हैः

"अपने अध्ययन में मैने इन प्रभावों का क्षीण, माध्यमिक, सशक्त और अतिसशक्त प्रभावों के रूप में वर्गीकरण किया है. दिलचस्प बात यह है कि 43 प्रतिशत सबसे सशक्त एल नीन्यो और ला नीना प्रभाव बीसवीं सदी में देखने में आये. तीस प्रतिशत तो अकेले 1940 के बाद हुए हैं. यदि केवल एल नीन्यो की बात करें, तो 55 प्रतिशत सबसे सशक्त एल नीन्यो बीसवीं सदी में पड़ते हैं."

एल नीन्यो

प्रभाव क्या गुल खिला सकता है, 1998-99 में दुनिया देख चुकी है. उस समय संपूर्ण दक्षिणी गोलार्ध पर का मौसम जैसे पगला गया था. ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में घोर सूखा पड़ा. पूर्वी अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका में इतनी वर्षा हुई मानो प्रलय आ गया. एल नीन्यो के इन प्रभावों ने विश्वभर में 8000 हज़ार प्राणों की बलि ली. अन्य नुकसान 10 अरब डॉलर से भी ऊपर जाते हैं.

जलवायु परिवर्तन की बढ़ती पेंग

तो, क्या इस तरह की घटनाएँ अभी और बढ़ेंगी? इस सब के पीछे कहीं बदलती हुई जलवायु का और परोक्ष रूप से मनुष्य का हाथ भी तो नहीं है? गेर्जीस स्वयं ऐसा नहीं मानतीं:

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फ़रवरी 2008 में बोलीविया में ला नीना का प्रकोपतस्वीर: AP

"ऐसा कुछ कहना अभी बहुत जल्दबाज़ी होगी. ऐसे कुछ अध्ययन भी हैं ज़रूर, जिनसे यह संदेह होता है कि पृथ्वी पर तापमान बढ़ने से जलवायु परिवर्तन वाले झूले की पेंग और बढ़ सकती है. लेकिन, अभी तक इस पर सहमति बन नहीं पायी है. जब तक ऐसी सहमति बन नहीं जाती, तब तक ऐसे किसी सीधे संबंध का दावा नहीं किया जा सकता."

रॉब एलन भी इतनी दूर नहीं जाना चाहेंगे. रॉब एलन भूवैज्ञानिक हैं और एक्सेटर में ब्रिटिश मौसम विभाग के जलवायु केंद्र में शोधकार्य कर रहे हैं. एल नीन्यो प्रभाव के बारे में पहले ही कई शोधपत्र प्रकाशित कर चुके हैं. रॉब एलन भलीभाँति जानते हैं कि प्रशांत महासागरीय जलवायु-झूला अपने आप ही कैसी ऊँची-ऊँची पेंगे लगाता है. इसलिए, यह तय कर पाना बड़ा कठिन हो जाता है कि एक अति से दूसरी अति की ओर जाने की उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति आजकल के जलवायु परिवर्तन से कहाँ तक प्रभावित हो रही है. उनका कहना है कि इस तरह की आशंकाएँ पिछले दस वर्षों से अक्सर सुनने में आती हैं:

"तब से ऐसी कोई बड़ी प्रगति नहीं हुई है, जिसकी बाट जोही जा रही थी. एल नीन्यो के बारे में हमारी जानकारी अभी भी पर्याप्त नहीं है. एल नीन्यो की बढ़ती हुई तीव्रता की व्याख्या के लिए जलवायु परिवर्तन वाला तर्क एक अच्छा उम्मीदवार ज़रूर है, लेकिन बात इसलिए नहीं बनती कि एल नीन्यो कभी बहुत प्रबल हो जाता है तो कभी दुर्बल भी हो जाता है. ये उतार-चढ़ाव वर्षों और दशकों में होते हैं."

महादैत्यों के तांडव में मनुष्य का हाथ नहीं

ला नीना

की अवस्था में, यानी ऊष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागरीय क्षेत्र की जलवायु में उतार-चढ़ाव के सबसे ढंडे चरण के बारे में जोएल गेर्जीस की नयी खोजों से भी बहुत कुछ यही बात सामने आती हैः

"ला नीना के भी बहुत गंभीर परिणाम हो सकते हैं, उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया में ख़ूब बाढें आ सकती हैं. मेरे विश्लेषणों से पता चलता है कि 16वीं-17वीं सदी में भी ला नीना वाली बहुत ही ज़ोरदार अवस्थाएँ रह चुकी हैं. उस समय मनुष्य का इसमें कोई योगदान नहीं था. अतः यह संभव है कि एल निन्यो भी ठीक इस समय बढ़ी हुई स्वाभाविक सक्रियता वाली अवस्था से गुज़र रहा है."

कहने की आवश्यकता नहीं कि पृथ्वी पर का तापमान बढ़े या न बढ़े, एल नीन्यो और ला नीना कहलाने वाले प्रशांत सागरीय महादैत्य आगे भी पहेली भी बने रहेंगे, और ख़तरनाक भी.