बस नकल मार लो
७ दिसम्बर २०१५दिल्ली या भारत में ज्यादातर जगहों पर अगर रात में इमरजेंसी में कहीं जाना पड़े और आपके पास वाहन न हो, तो आप खुद को कोसेंगे. जब तक कोई गाड़ी नहीं मिल जाती तब तक इंतजार करते हुए आप अपनी तंगहाली पर रोएंगे. इधर उधर फोन कर दूसरों से विनती करेंगे. सार्वजनिक परिवहन के मामले में जिस देश की यह हालत हो, उसके मुंह से कोरी बातें शोभा नहीं देती. जब सरकारें सार्वजनिक परिवहन को लेकर उदासीन हो जाएं तो समाज अपनी वैकल्पिक व्यवस्था करता है. करोड़ों दुपहिया वाहन, कारें, जीपें, ऑटो, विक्रम और डग्गामार जीपें इसका जीता जागता सबूत हैं. राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं.
साल भर पहले रिपोर्टें आने लगी थीं कि दिल्ली दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में शीर्ष पर है. अथाह चौड़ी सड़कें होने के बावजूद दिल्ली में हर दिन लंबा ट्रैफिक जाम लगा रहता है. राजधानी में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण हैं कारें. दिल्ली में कोलकाता, मुंबई और चेन्नई के कुल वाहनों से ज्यादा गाड़ियां हैं. इसकी वजह राजधानी की लगातार बढ़ती आबादी और सार्वजनिक परिवहन की कमी है.
पिछले साल भारी बहुमत से सत्ता में आए अरविंद केजरीवाल और उनके मंत्री इस समस्या से पूरी तरह वाकिफ थे. लेकिन उन्होंने क्या किया? आप सरकार ने जुलाई 2015 में राजधानी का बीआरटी (बस रैपिड ट्रांजिट) सिस्टम खत्म किया. शीला दीक्षित के समय में बसों के लिए बनाए गए इस खास रास्ते ने सार्वजनिक परिवहन को काफी तेज बनाया. कार वाले फंसे रह जाते थे, लेकिन बसें सटासट निकलती थीं. लोगों को सार्वजनिक परिवहन की तरफ आकर्षित करने की यह अच्छी कोशिश थी.
दिल्ली के विधायक, हाई कोर्ट के जज और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि अगर एक हफ्ते भी लगातार आम आदमी की तरह सुबह शाम मेट्रो में सफर कर लें तो उन्हें आईना दिख जाएगा. पता चल जाएगा कि मेट्रो कैसी ठसाठस रहती है. शाम को स्टेशनों के बाहर 500 मीटर या एक किलोमीटर लंबी लाइन लगी रहती है. हकीकत का पता न हो तो अफसाना नहीं लिखना चाहिए.
दिल्ली और देश भर में अब सार्वजनिक परिवहन के नाम पर करोड़ों जीपें और विक्रम चल रहे हैं. उनके लिए कोई स्टॉप नहीं है. जहां हाथ दिया वहां रूक गए.
दिल्ली में एक जनवरी से सम और विषम संख्या की कारों के लिए दिन तय करना कोई बुरी बात नहीं है. जर्मनी, सिंगापुर और चीन में ऐसा हो चुका है. सफल यह सिर्फ सिंगापुर में हुआ. ये फॉर्मूला वहीं से आया है. दिल्ली में प्रदूषण की जो हालत है उसे देखते हुए कड़े कदम उठाने जरूरी हैं. लेकिन ऐसा फैसला करने से पहले ठोस तैयारी की जानी चाहिए थी. सिर्फ नेशलन ग्रीन ट्राइब्यूनल के दबाव से बचने के लिए ऐसा नहीं होना चाहिए. नेशलन ग्रीन ट्राइ्ब्यूनल को भी नींद से जागने के जरूरत है. नेशनल का मतलब सिर्फ दिल्ली नहीं है, उसमें पूरा भारत आता है, जहां प्रदूषण के चलते दिल्ली जैसे हालात बनते जा रहे हैं. भारत को हवा में घुलते जहर से अगर बचना है तो देश भर में बसों के लिए सीएनजी पम्प बनाने होंगे. ट्रेनों और बसों को प्राथमिकता देनी होगी. टैक्सी और ऑटो के सिस्टम को भी सुरक्षित और सुलभ बनाना होगा.
ब्लॉाग: ओंकार सिंह जनौटी