मानवाधिकारों के दौर में अजीब है मौत की सजा
३० जुलाई २०१५इस पर कोई बहस नहीं है कि याकूब मेमन को सजा मिलनी चाहिए थी या नहीं. लेकिन इस पर बहस जायज है कि क्या यह सजा मौत की सजा होनी चाहिए थी. भारत ने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर किया है. 1989 में पास हुए एक प्रोटोकॉल में सदस्य देशों से मृत्युदंड को समाप्त करने के लिए जरूरी कदम उठाने की बात कही गई है. भारत ने अब तक ऐसा नहीं किया है. यह मौका था.
यूरोप में 18वीं सदी में ही मानवतावादियों ने जान लेने के शासन के अधिकार को चुनौती दी थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी सहित कई देशों ने इसे खत्म कर दिया और इस तरह के प्रावधान संविधान में शामिल किए. आज नैतिक और आपराधिक दोनों ही तरह से मौत की सजा पर विवाद है और गैर सरकारी संगठन पूरे विश्व में इसकी समाप्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2007 में मृत्युदंड पर अमल को रोकने की मांग की थी.
ये सच है कि मृत्युदंड को समाप्त करने का फैसला अंततः सरकार और संसद को लेना होगा. लेकिन भारत में न्यायपालिका पहले भी कई मामलों में स्पष्ट संदेश देती रही है और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को राह दिखाती रही है. याकूब मेमन पर फैसला मार्गदर्शक साबित हो सकता था.
मुंबई की अदालत द्वारा डेथ वारंट जारी किए जाने के बाद अंतिम दिनों में जिस तरह से घटनाएं घटीं और याकूब मेमन को फांसी के फंदे से बचाने की अंतिम कानूनी कोशिशें हुई, सुप्रीम कोर्ट में बार बार अपील की गई, प्रक्रियाओं का हवाला दिया गया, राज्यपाल और राष्ट्रपति के यहां दया की गुहार लगाई गई, उसने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों पर जनमत के दबाव को भी दिखाया है.
अदालत से न्याय और निष्पक्ष फैसले की उम्मीद की जाती है. निष्पक्ष फैसलों के लिए उन्हें मीडिया और जनमत के दबाव से मुक्त करना होगा. इसलिए उचित होगा कि मौत की सजा के औचित्य पर अब बहस हो. पूरे देश में आम लोगों सहित अपराध नियंत्रण से जुड़े सभी पक्ष खुली बहस करें और फैसला लिया जाए.
मानवाधिकारों और जीवन के अधिकार के इस युग में मौत की सजा अजीब लगती है. महात्मा गांधी ने कहा था कि आंख के बदले आंख का नतीजा होगा कि पूरी दुनिया एक दिन अंधी हो जाएगी. सजा का लक्ष्य अपराध को खत्म करना और समाज को ज्यादा सुरक्षित बनाना होना चाहिए. कानून का सम्मान उसके समक्ष बराबरी और सबों की भागीदारी से ही संभव है.
ब्लॉग: महेश झा