मांझी की नैया ढूंढे किनारा
१७ फ़रवरी २०१५हकीकत क्या है यह तो इतिहास बताएगा लेकिन हम इस सियासी रंगमंच के किरदारों में नायक और खलनायक की तलाश तो कर ही सकते हैं. बिहार में इन दिनों सत्ता की लोलुपता और इसके लिए चल रही उठा पटक के चर्चे हर जुबान पर हैं. मजेदार बात यह है कि इस अभूतपूर्व राजनीतिक झंझावात का रंगमंच भले ही पटना में बना हो लेकिन इसकी पटकथा लोकसभा चुनाव के बाद दिल्ली में लिख दी गई थी. इसे संयोग ही कहेंगे कि महज नौ महीने बाद इस नाटक के पटाक्षेप की पटकथा एक बार फिर दिल्ली में ही लिखी गई.
कौन है खलनायक?
इस राजनीतिक रंगमंच का सबसे रोचक पहलू किसी को हीरो बनाना नहीं है, बल्कि सत्ता की खातिर किसी तीसरे व्यक्ति को खलनायक साबित करना है. पहले नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाने के लिए दिल्ली में इस रंगमंच की पटकथा लिखी और अब उसी दिल्ली में मोदी ने नीतीश को खलनायक साबित करने की कहानी लिख दी है. इसके फाइनल राउंड का मंचन 20 फरवरी को पटना में किया जाएगा और तब ही नायक या खलनायक की पहचान हो पाएगी. इस सब के बीच इतना तो तय हो गया है कि नीतीश और मोदी की खातिर हो रहे इस सियासी रंगमंच के साइड हीरो बनाए गए मांझी अब मुख्य किरदार की भूमिका में आ गए हैं.
इसके रचनाकारों ने यह सोचा भी नहीं होगा कि राजनीतिक मकसद की खातिर रचा गया यह नाटक संवैधानिक संकट भी खड़ा कर देगा. मांझी के मार्फत नीतीश और मोदी के बीच चल रही नूराकुश्ती अब अदालत की चौखट पर पहुंच चुकी है. देश के इतिहास में शायद यह पहला अवसर होगा जब किसी पार्टी को अपने ही मुख्यमंत्री को पार्टी से निकालना पड़ा हो. नीतीश को फिर से सत्तासीन करने के लिए चला गया यह दांव, अब जदयू के लिए गले की फांस बन गया है.
भाजपा के समर्थन की आस
पटना हाईकोर्ट को संविधान की मर्यादाओं को ताक पर रख कर चल रहे इस सियासी ड्रामे को दुर्भाग्यपूर्ण तक बताना पड़ा. पहले अदालत ने नीतीश को जदयू विधायक दल का नेता बनाने पर रोक ला दी लेकिन कानून में किसी को विधायक दल का नेता बनाने संबंधी कोई प्रावधान नहीं होने के कारण इस रोक को हटाना पड़ा. अदालत के दखल के बाद भी बिना किसी समर्थन के मुख्यमंत्री पद पर जमे मांझी को अब हाईकोर्ट ने कोई नीतिगत फैसला लेने से रोक दिया है. ऐसा आदेश पारित कर अदालत को भी मजबूरी में ही सही लेकिन संविधान में शक्तिपृथक्करण के सिद्धांत की लक्ष्मणरेखा को पार करना पड़ गया.
सब जानते हैं कि मांझी को सिर्फ भाजपा के समर्थन की आस है. इसी के सहारे उन्होंने संविधान और सियासी मूल्यों को ताक पर रख कर बिहार को एक बार फिर पतित राजनीति का अखाड़ा बनने पर मजबूर कर दिया है. इसमें दोमत नहीं है कि अपनों की ही नाव डुबोने में लगे मांझी को अब खुद अपने लिए किनारे की तलाश है, इस स्थिति के लिए वह खुद ही जिम्मेदार हैं. लेकिन यह भी सही है कि बिहार को सियासत के इस दलदल में फंसाने के लिए इतिहास मांझी के अलावा नीतीश और मोदी से भी जवाब तो तलब करेगा ही.
ब्लॉग: निर्मल यादव