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मोदी सरकार के रुख से डॉक्टर और दवा कंपनियां परेशान

२६ मई २०१७

जेनेरिक दवाओं को लेकर मोदी सरकार के रुख ने डॉक्टरों और फार्मा इंडस्ट्री को चिंता में डाल दिया है. सरकार एक ऐसे कानून पर विचार कर रही है जिसके तहत डॉक्टरों को मरीजों को दवाई उनके जेनेरिक नामों से ही सुझानी होगी.

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Indien Pharma Apotheke Archiv 2012
तस्वीर: Manjunath Kiran/AFP/GettyImages

भारत सरकार की इस योजना पर डॉक्टरों और फार्मा इंडस्ट्री ने चिंता जतायी है. इनका कहना है कि देश में नियमन अब भी सुस्त है और ऐसे में सिर्फ जेनेरिक नामों का उल्लेख करने से घटिया और निम्न स्तर की दवाएं बिकने का जोखिम बढ़ेगा.

पिछले महीने प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि सरकार देश के हर नागरिक के लिये स्वास्थ्य सेवायें सुलभ कराना चाहती है और इसी दिशा में बढ़ते हुये सरकार इस तरह के कानून पर विचार कर रही है. हालांकि सरकार की ओर से इस विषय में और अधिक जानकारी नहीं दी गयी है और न इस कानून को लेकर किसी समय सीमा का उल्लेख किया गया है. लेकिन फार्मा उद्योग को डर है कि इस तरह का नियमन लोगों के स्वास्थ्य में सुधार करने की बजाय उसे नुकसान पहुंचायेगा.

Sun Pharmaceutical Industries in Mumbai Indien
तस्वीर: Reuters

देश में सिप्ला और सन फार्मा जैसी बड़ी दवा निर्माता कंपनियां जेनेरिक दवाओं को अपने ब्रांड के तहत बेचती हैं और छोटे दवा निर्माताओं के साथ प्रतिस्पर्धा में शामिल हैं. कई छोटी कंपनियां बाजार में अल्प गुणवत्ता जांच मानकों के साथ प्रतिस्पर्धा में बनी हुई हैं. कुछ डॉक्टरों को मानना है कि वे मरीजों को ज्यादातर ब्रांडेड जेनेरिक दवाएं लिखना पसंद करते हैं क्योंकि इन दवाओं की गुणवत्ता पर उन्हें पूरा भरोसा है. वहीं सरकार की कोशिश मरीजों को सस्ती गैर-ब्रांडेड दवायें उपलब्ध कराने की है. इस पर दवा कंपनियों का कहना है कि किसी भी कानून को निर्धारित करने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी होगा कि जो दवाएं उपभोक्ताओं को दी जाये वे गुणवत्ता मानकों के अनुकूल हों. 

सिप्ला के सीईओ उमंग वोहरा के मुताबिक, "सरकार के लिये भी गुणवत्ता पहलू सबसे अहम होगा. ये सुनिश्चित करना होगा कि देश में सभी कंपनियां गुणवत्ता के एक ही स्तर पर हो." हालांकि देश में ऐसा कोई डाटा उपलब्ध नहीं है जो ब्रांडेड जेनेरिक दवा और नॉन-ब्रांडेड दवाओं की गुणवत्ता की तुलना कर सकें. लेकिन कुछ अध्ययनों के मुताबिक, गैर-ब्रांडेड दवा खासकर सरकार द्वारा खरीदी जाने वाली दवाओं में गुणवत्ता की कुछ कमी है. साल 2012 की एक ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया था कि साल 2010-11 में सेना के मेडिकल स्टोर्स के लिये सरकार की ओर से खरीदी गई 31 फीसदी दवा निम्न स्तर की थी. साल 2006-07 के दौरान यह आंकड़ा तकरीबन 15 फीसदी का था.

बिक्री के लिहाज से देश की तीसरी सबसे बड़ी दवा कंपनी ल्युपिन के प्रबंध निदेशक नीलेश गुप्ता के मुताबिक, जेनेरिक दवायें ठीक बात है लेकिन इनमें गुणवत्ता लागू करने के लिये अमेरिका जैसे कठोर तंत्र की आवश्यकता है और अगर ऐसा नहीं होता है तो यह नुकसानदायक साबित होगा.

मुंबई के मधुमेह विशेषज्ञ विजय पानिकर के मुताबिक, यह विचार बहुत अच्छा माना जा सकता है लेकिन व्यावहारिक रूप से लागू करने के लिये सरकार को उच्च गुणवत्ता वाली दवाइयों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी.

दिल्ली में गैर सरकारी संस्था पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट से जुड़े डॉक्टर एस श्रीनिवासन के मुताबिक देश का आधे से अधिक बाजार दवाओं के संयोजन से बना है. ऐसे में डॉक्टरों से केमिकल नामों की सीरीज का सुझाव मांगना और डॉक्टरों द्वारा इसे देना बहुत ही अव्यावहारिक होगा. डॉक्टरों ने इस योजना का विरोध किया है और आशंका जतायी है कि ऐसे किसी कानून के बाद सभी शक्तियां केमिस्ट के हाथों में चली जाएंगी.

पनिकर के मुताबिक "अगर आज मैं जेनेरिक दवा लिखूं, तो केमिस्ट तय करेगा कि उसे कौन सी दवा देनी है, साथ ही ऐसी स्थिति में केमिस्ट गुणवत्ता की परवाह किये बिना वही दवा देगा जिससे उसको अधिक मार्जिन प्राप्त होगा."

एए/आरपी (रॉयटर्स)