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समाज

भारत में इंसानी मल को ढोते हजारों लोग

शिवप्रसाद जोशी
१२ जून २०१८

भारत में 21वीं सदी में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो इंसानी मल को उठाने और सिर पर ढोने को मजबूर हैं. शिव जोशी पूछते हैं कि आखिर इससे छुटकारा कब मिलेगा.

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Indien Frauen beseitigen menschliche Exkremente
तस्वीर: DW/Faisal Fareed

मैनुअल स्केवेंजर यानी हाथ से मैला उठाने वाले व्यक्तियों की पहचान के लिए 18 राज्यों में चलाया जा रहा सर्वे, निर्धारित समय पर पूरा नहीं हो पाया है. केंद्रीय सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय, नीति आयोग और राज्य सरकारों के साथ मिल कर ये सर्वे करा रहा है.

इस साल जनवरी में शुरू हुए इस सर्वे के पहले चरण की डेडलाइन 30 अप्रैल थी. मीडिया में अधिकारियों के हवाले से आई खबरों के मुताबिक केरल ही ऐसा राज्य हैं जहां मैला ढोने वालों को चिन्हित करने का अधिकांश काम पूरा कर लिया गया है. बताया जाता है कि गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से संतोषजनक रिस्पॉन्स अभी नहीं मिला है.

सरकारें इस काम में स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद भी ले रही हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक, पूरे देश में सात लाख 40 हजार से ज्यादा घर ऐसे हैं जहां मानव मल हाथों से हटाया जाता है. इसके अलावा, सेप्टिक टैंक, सीवर, रेलवे प्लेटफॉर्मों पर भी यही काम होता है.

शहरों में दलितों पर ज्यादा अत्याचार 

2011 की ही सामाजिक आर्थिक जातीय गणना बताती है कि ग्रामीण इलाको में एक लाख 82 हजार से ज्यादा परिवार, हाथ से मैला उठाते हैं. लेकिन स्पष्ट रूप से कोई निश्चित संख्या अभी नहीं मिली है. चिन्हीकरण के काम में कई खामियों को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इस साल जनवरी में ये पायलट सर्वे शुरू किया है.

पहले चरण में बाल्टियों और गड्ढों में जमा और शौचालयों से मल उठाने वालों की गिनती की जा रही है. दूसरे चरण में वे लोग गिने जाएंगे जो सेप्टिक टैंकों, सीवरों और रेलवे पटरियों की सफाई करते हैं.

ये सही है कि मल मूत्र और मैला अपने हाथों से साफ करने और उसे ढोने की अमानवीयता को बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था. ये भी सही है कि 1993 से ही किसी को मैनुअल स्केवेजिंग के काम पर लगाना कानूनन अपराध घोषित है. लेकिन ये बढ़ते भारत का एक स्याह और विडंबनापूर्ण पहलू है कि न सिर्फ ये काम अभी जारी है, बल्कि इसके खात्मे के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी कोई चेतना या विवेक सक्रिय नहीं है.

"पेट के लिए करना पड़ता है गटर साफ"

2007 में मैनुअल स्केवेंजरों के पुनर्वास के तहत स्वरोजगार योजना शुरू की गई थी. करीब एक लाख 18 हजार से ज्यादा लोग भी 18 राज्यों में चिन्हित किए गए थे. लेकिन जातीय दुराग्रह इतने तीव्र हैं कि जागरूकता का कोई भी अभियान शिथिल ही रह जाता है. और इस काम को गरीबी और पिछड़ेपन की वजह से करने पर विवश समुदाय की यातना से मुख्यधारा के समाज को कोई मतलब रह नहीं गया है. यह मान लिया गया है कि वे इसी काम के लिए हैं. यह भी एक तरह का शोषण हैं, कहीं घोषित तो कहीं अघोषित तौर पर बना हुआ.

कहने को उनके पुनर्वास की बात की जा रही है. पुनर्वास के तहत सरकार, 40 हजार रुपये की एकमुश्त सहायता दे रही है. इसके अलावा कौशल विकास के लिए तीन हजार रुपये प्रति माह के साथ दो साल तक का प्रशिक्षण दिया जाना है. 15 लाख रुपये तक की स्वरोजगार योजनाओं के लिए कर्ज में छूट भी जी जाएगी.

Indien Müllfrauen in Mudali
तस्वीर: Lakshmi Narayan

कुछ नकदी, कुछ कर्ज और कुछ सलाह आदि तो पुनर्वास के नाम पर है लेकिन ये भी सच है कि क्या इतने भर से उनकी जिंदगियां बदल जाएंगी. सरकारें क्या इस बात की गारंटी दे सकती हैं कि एक बार उनका पुनर्वास हो जाएगा तो वे उन भयावह और जानलेवा गड्ढों, सीवरों और मलबे मल और मैले से खदबदाती जगहों पर दोबारा नहीं उतरेंगे.

अगर सरकार वास्तव में उनके प्रति संवेदनशील है तो पुनर्वास स्थायी और मुकम्मल होना चाहिए. उन्हें अधर में नहीं छोड़ा जा सकता. खानापूरी या कर्तव्य की इतिश्री फाइलें तो चमका देगीं लेकिन उनकी जिंदगियां नहीं संवार पाएंगी. और पुनर्वास न सिर्फ स्थायी होना चाहिए बल्कि इसे बहुआयामी भी होना होगा.

क्या उच्च शिक्षा सिर्फ अमीरों के लिए है 

पैसे या कर्ज देकर नहीं बल्कि उन्हें साधन संपन्न और शिक्षित बनाकर. उनके परिवारों के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण पर अलग से ध्यान देने की जरूरत है. सहज गरिमापूर्ण जीवन उनका भी संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार और मानवाधिकार है. समाज कल्याण की कुछ योजनाएं और नीतियां तो सिर्फ उन्हीं पर केंद्रित होना चाहिए. इसके लिए अलग से बजट ही नहीं उसका पूरा पूरा इस्तेमाल भी करना होगा.

छुआछूत और जातीय भेदभाव आदि के लिए कानून और धाराएं तो हैं लेकिन उन पर अमल सुनिश्चित करना होगा. आप उनका कथित पुनर्वास कर दीजिए और फिर खुद से पूछिए क्या आप उन्हें अपने ठीक पास बैठाने या अपने घर में प्रवेश देने या अपना खाना उनके साथ साझा करने के लिए तैयार हैं? नहीं हैं.

13 राज्यों में करीब 13 हजार मैनुअल स्केवेंजर चिन्हित किए जा सके हैं जो 2011 की कुल गणना का महज सात प्रतिशत है. जाहिर है गणना के काम में कुछ तकनीकी दिक्कतें तो हैं लेकिन पारदर्शिता और मेहनत का अभाव भी दिखता है. इस काम में हो रही देरी से पता चलता है कि जिला प्रशासन स्तर पर या तो सुस्ती है या अनिच्छा.

Indien Müllfrauen in Mudali
तस्वीर: Lakshmi Narayan

कई मामलों में देखा गया है कि कुछ शर्म और कुछ सामाजिक बंदिशों के चलते, मैनुअल स्केवेंजर भी आगे आकर पहचान जाहिर करने में हिचकिचा रहे हैं. वे अपनी हिचकिचाहट तोड़ें- इस काम के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-आर्थिक अध्ययन और अभियान भी समांतर रूप से चलाए जाने की जरूरत है. दलित-उत्पीड़ित-शोषित समुदाय को भी इस कदर जागरूक और सजग होना होगा कि वे अपनी पॉलिटिक्ल स्पेस का निर्माण खुद करें, आगे आएं और पीढ़ियों और सदियों की बेड़ियों से मुक्त हो सकें.

स्वच्छ भारत अभियान का महिमामंडन और महात्मा गांधी की 150वीं जयंती विराट भव्यता और चौतरफा चमकदमक, साज-सफाई के साथ मनाना आसान है, लेकिन सफाई और संवेदना के उनके नैतिक और मानवीय फलसफे पर अमल करना बहुत कठिन है. 

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