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भारत में अफ्रीकी रिवायत

१ जून २०१३

भारत के एक तटीय हिस्से में छोटा सा अफ्रीकी समुदाय रहता है. यह लगभग 12 सदी से यहां रहता आया है और अब तक अपनी परंपरा के साथ जुड़ा है.

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तस्वीर: Indranil Mukherjee/AFP/Getty Images

भारतीय फोटोग्राफर केतकी शेठ की नई किताब ए सर्टेन ग्रेस में सिडी नाम के इस समुदाय के बारे में बताया गया है, जिनके पुरखे नौवीं सदी में भारत पहुंचे थे. इसमें यह भी जिक्र है कि अफ्रीकी समुदाय गरीबी में रह रहा है लेकिन समाज से आम तौर पर दूर रहता है.

पिछले महीने जब किताब जारी हुई, तो शेठ ने 2005 के अपने अनुभव के बारे में बताया, "सिडी लोगों सिरवन के पास एक गांव में रहते हैं. उनकी सेवाओं के बदले यह जगह उन्हें नवाबों ने दी थी." इनकी संख्या 60 से 70 हजार बताई जाती है, जो इथियोपिया के पास से आए थे.

ये लोग अपने सदस्यों को दूसरे समुदायों में शादी नहीं करने देते और सिडी समुदाय के बाहर के लोगों का यहां स्वागत नहीं किया जाता है. शेठ बताती हैं कि पहली बार जब वहां पहुंचीं, तो उनके लिए स्थिति बहुत आसान नहीं थी, "अगर नजरों से किसी को मारा जा सकता है, तो मेरे लिए ऐसी ही स्थिति थी. मैं महसूस कर सकती थी कि उनके अंदर बहुत दूरी थी. वे मुझे बाहरी समझ रहे थे."

Karneval der Kulturen - Angolaner in Deutschland
तस्वीर: DW/ D.Feijó

बाद में उस समुदाय के युवा दोस्त बन गए, हालांकि कुछ दूरी के साथ. शेठ ने पांच साल तक इस प्रोजेक्ट पर काम किया और इन युवाओं के पोट्रेट तैयार किए. उन्होंने सभी तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट में खींची हैं.

समझा जाता है कि अरब शासन के दौरान सिडी समुदाय के लोगों को दास के रूप में भारत लाया गया. ये आम तौर पर भारत के पश्चिमी तट पर छोटे छोटे गांवों में रहते हैं. इनके कुछ गिने चुने लोग देश के दूसरे हिस्सों में भी हैं.

न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के मानव विज्ञानी महमूद ममदानी के मुताबिक ये लोग न सिर्फ सस्ते मजदूर के तौर पर भारत पहुंचे, बल्कि वे सैनिक भी बने और उनमें से बहुतों को काफी ऊंचा पद भी मिला. शेठ की किताब की प्रस्तावना ममदानी ने ही लिखी है. उन्होंने जिक्र किया है कि किस तरह पुर्तगाली जब भारत पहुंचे, तो उन्होंने मोजांबिक से भी दास लाए, "सस्ते में उनका मिलना खास बात नहीं थी, बल्कि उनकी वफादारी सबसे खास थी." जो लोग सबसे ज्यादा वफादार थे, उन्हें जमीनें भी दी गईं, जो कि अब छोटे गांव की शक्ल ले चुका है.

अमेरिकी एक्सपर्ट बेहेरोजे श्रॉफ ने लंबे वक्त तक सिडी समुदाय पर रिसर्च किया है. उनका कहना है कि दूसरे समुदायों की तरह उन्होंने भी अपनी परंपरा को दोबारा खड़ा किया. कुछ परंपराएं खत्म हो गईं लेकिन संगीत, नाच गाना और गुजराती बोलियों में कुछ किस्वाहिली शब्दों के जुड़ाव के साथ उनका अस्तित्व बना रहा.

श्रॉफ का कहना है कि सिडी मुस्लिम आज भी उन परंपराओं को निभाते हैं, जिनके मुताबिक ढोल नगाड़े बजा कर इसके आस पास नाचा जाता है, "यह ऐसा सबक है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाया जाता है." श्रॉफ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं. सिडी समुदाय को 1956 से भारत में आदिवासियों का दर्जा दिया गया है.

भारतीय खेल प्राधिकरण ने 1987 में गुजरात में एक ट्रेनिंग की शुरुआत की थी. प्राधिकरण की सोच थी कि हट्टे कट्टे सिडी समुदाय के लोग खेलों में अच्छा कर सकते हैं. हालांकि यह पहल राजनीति की भेंट चढ़ गई और नौ साल पहले इसे बंद कर दिया गया.

एजेए/एमजी (एएफपी)

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