1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

भारत और “पूर्व की ओर देखो” नीति

६ जून २०१३

1991 में वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने जिस “पूर्व की ओर देखो” नीति की रूपरेखा तैयार की थी, प्रधानमंत्री के रूप में वह इसे अमली जामा पहनाने में लगे हैं.

https://p.dw.com/p/18lF6
तस्वीर: picture alliance/AP

इस नीति के तहत भारत पूर्व और विशेषकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों समेत सभी क्षेत्रों में मजबूत सहयोग संबंध विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है. इन्हीं प्रयत्नों की कड़ी के रूप में पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जापान और थाईलैंड की यात्रा की.

मनमोहन सिंह की जापान यात्रा का सांकेतिक महत्व अधिक था, और दोनों देशों ने पूरी कोशिश की कि शेष विश्व भी इसे पहचाने. जापान के सम्राट अकिहितो और सम्राज्ञी मिचिको ने प्रोटोकॉल तोड़ कर मनमोहन सिंह को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया हालांकि वह भारत के राष्ट्राध्यक्ष नहीं हैं. सम्राट और साम्राज्ञी कुछ समय बाद भारत की यात्रा पर आने वाले हैं. मनमोहन सिंह को जापान में अतिरिक्त सम्मान तो मिला पर उनकी यात्रा के दौरान जापान के साथ वैसे असैनिक परमाणु सहयोग समझौते पर दस्तखत करने की भारत की इच्छा पूरी नहीं हुई जैसा समझौता वह अमेरिका के साथ कर चुका है. मनमोहन सिंह ने यह दावा तो किया कि उनकी जापान यात्रा परमाणु समझौते पर दस्तखत करने की दिशा में एक औपचारिक कदम है और उन्हें उम्मीद है कि दोनों देश शीघ्र ही इस पर हस्ताक्षर करेंगे, लेकिन वह इस सवाल का जवाब नहीं दे पाये कि क्या ऐसा अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनाव से पहले संभव हो सकेगा.

मनमोहन सिंह की यात्रा को जापानी मीडिया ने तो बहुत महत्व नहीं दिया लेकिन माना जा रहा है कि इस दौरान उनके और प्रधानमंत्री शिंजो अबे के बीच सहज और दोस्ताना संबंध बन गए हैं और इसका दोनों देशों के आपसी संबंधों को और अधिक मजबूत बनाने की प्रक्रिया पर सकारात्मक असर पड़ेगा. इस संदर्भ में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि 2006-2007 के बीच जब लगभग एक वर्ष तक शिंजो अबे जापान के प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने ही भारत-जापान संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए विशेष प्रयास शुरू किए थे और ‘भारत-प्रशांत' की अवधारणा दी थी जो अब भूराजनीतिक विमर्श का अनिवार्य हिस्सा बन गई है. मनमोहन सिंह की यात्रा के दौरान हुए आर्थिक समझौते तो आशा के अनुरूप ही थे, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले कुछ समय के दौरान भारत और जापान के बीच रणनीतिक संबंध भी तेजी के साथ विकसित हुए हैं और इस यात्रा से इस प्रक्रिया में और भी तेजी आने की उम्मीद की जा रही है.

आश्चर्य नहीं कि चीन में इस पर खासी तीखी प्रतिक्रिया हुई है. चीन द्वारा म्यांमार, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ रणनीतिक सहयोग बढ़ाने की कोशिशों को भारत में चीन द्वारा उसकी घेराबंदी करने की कोशिश के रूप में देखा जाता है. दिलचस्प बात यह है कि भारत द्वारा जापान आदि चीन के पड़ोसी देशों के साथ रणनीतिक संबंधों को विकसित करने के प्रयासों को चीन में भी इसी रूप में देखा जा रहा है और वहा. के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने अपने संपादकीय में भारत और जापान के बीच समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के बारे में हुए विचार-विमर्श पर उंगली उठाते हुए यह आरोप लगाया है. लेकिन चीन सरकार की ओर से व्यक्त प्रतिक्रिया में केवल यह आशा जताई गई है कि भारत और जापान के आपसी संबंधों में विकास क्षेत्रीय शांति, स्थिरता और विकास के हित में होगा. इस संदर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह की जापान यात्रा से ठीक पहले भारत और चीन के बीच लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मुठभेड़ की स्थिति उत्पन्न हो गई थी. उधर चीन और जापान के बीच भी कुछ द्वीपों को लेकर विवाद है.

भारत-जापान संबंधों का एक पहलू यह भी है कि हालांकि जापान की ओर से सबसे अधिक सहायता भारत को ही दी जाती है, लेकिन निवेश के मामले में तस्वीर बिलकुल उल्टी है. जहां चीन में जापान ने 100 अरब डॉलर का निवेश किया है, वहीं भारत में उसका निवेश मात्र 14 अरब डॉलर का है. भारत-जापान समग्र आर्थिक साझेदारी समझौते के नतीजे अभी तक सामने नहीं आये है लेकिन मनमोहन सिंह की यात्रा के बाद भारत को उम्मीद है कि स्थिति में बदलाव आएगा.

जिस तरह भारत “पूर्व की ओर देखो” की नीति पर चल रहा है, उसी तरह थाईलैंड “पश्चिम की ओर देखो” की नीति अपनाए हुए है. जाहिर है कि ये दोनों नीतियां एक ही बिन्दु पर मिलती हैं. बैंकॉक में प्रधानमंत्री यिंग्लुक शिनावात्रा और मनमोहन सिंह के बीच हुई वार्ता और दोनों देशों के बीच हुए समझौते द्विपक्षीय संबंधों के मजबूत होने का संकेत देते हैं. पिछले पांच वर्षों में दोनों देशों के बीच व्यापार 15 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ा है और अब वह आठ अरब साठ करोड़ डॉलर का आंकड़ा पार कर चुका है. मनमोहन सिंह ने थाई निजी कंपनियों को भारत में ढांचागत क्षेत्र में निवेश करने के लिए आमंत्रित किया. भारत के थाईलैंड के साथ प्रगाढ़ हो रहे संबंधों का उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए भारी महत्व है क्योंकि यदि भारत-म्यांमार-थाईलैंड समीकरण बन गया, तो इन राज्यों का शेष विश्व के साथ सीधा संपर्क बन जाएगा. मनमोहन सिंह की थाईलैंड की यात्रा के दौरान इस त्रिपक्षीय राजमार्ग योजना पर बातचीत भी आगे बढ़ी है.

ब्लॉगः कुलदीप कुमार

संपादनः एन रंजन

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें