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भारतीय राजनीति में बड़े बदलाव संभव

कुलदीप कुमार८ नवम्बर २०१५

बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार दूरगामी महत्व की घटना है. कुलदीप कुमार का कहना है कि इसका देश की भावी राजनीति पर निर्णायक प्रभाव पड़ सकता है.

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तस्वीर: Reuters/D. Ismail

भारतीय राजनीति पर पड़ने वाले इन प्रभावों के बारे में अभी केवल कुछ अनुमान ही लगाया जा सकता है, लेकिन एक बात जरूर पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है और वह यह कि इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्थिति अचानक काफी कमजोर हो गई है. पिछले लगभग दो साल के दौरान सामूहिक नेतृत्व का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के भीतर नरेंद्र मोदी का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो गया था. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह उनके कनिष्ठ सहयोगी के रूप में काम कर रहे थे, पार्टी संगठन के मुखिया के तौर पर नहीं.

लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं को मार्गदर्शक मण्डल का सदस्य बना कर हाशिये पर डाल दिया गया था. उनसे कितना मार्गदर्शन लिया गया इसका पता इसी बात से चलता है कि इस मंडल की कोई बैठक ही नहीं हुई. केंद्र सरकार पर भी प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय का पूरा नियंत्रण था. केवल वित्त तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ही सक्रिय दिखते थे, वरना गृहमंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जैसे महत्वपूर्ण मंत्रियों और कद्दावर नेताओं की कोई स्पष्ट भूमिका नजर नहीं आती थी. राज्यों के चुनाव भी अमित शाह की देखरेख में राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा ही लड़े जा रहे थे. इसके कारण नीचे से ऊपर तक संगठन में भी सत्ता का केन्द्रीकरण हो गया था.

पहले दिल्ली और अब बिहार में मिली करारी हार के बाद इस स्थिति का अधिक देर तक बने रहना मुश्किल हो गया है. पार्टी और सरकार के भीतर दूसरे नेताओं के साथ सत्ता में साझेदारी किए बिना अब पहले की तरह काम करना कठिन होगा. यदि ऐसा न हुआ, तो पहले विरोध के दबे-ढके और फिर मुखर स्वर उभरना स्वाभाविक होगा.

बिहार जैसे बड़े राज्य से अब राज्यसभा में राजग के अधिक सदस्य नहीं आ पाएंगे क्योंकि उनका चुनाव विधायक करते हैं. इसका असर आने वाले वर्षों में संसद के कामकाज पर पड़ेगा. अभी तक मोदी सरकार ने सभी के साथ संवादहीनता का बर्ताव किया है. उसने किसी भी मुद्दे पर विपक्ष के साथ ईमानदारी और सदाशयता के साथ मिल-बैठकर बातचीत नहीं की है. इसके कारण संसद में लगातार गतिरोध बना रहा है. बीजेपी को उम्मीद थी कि राज्यों के चुनाव जीतने से राज्यसभा में उसके सदस्यों की संख्या बढ़ेगी और फिर वह अपने मनमाफिक विधेयक पारित करा सकेगी. लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा. इसलिए मोदी सरकार को विपक्ष के प्रति अपना रवैया बदलना पड़ेगा.

उसने देश में बढ़ती जा रही असहिष्णुता की संस्कृति के खिलाफ विरोध प्रकट कर रहे लेखकों और अन्य संस्कृतिकर्मियों के साथ भी संवाद का नहीं, टकराव का रास्ता अपनाया. इसकी भी देश भर में प्रतिक्रिया हुई. बीजेपी और उसके साथ जुड़े हिंदुत्ववादी संगठनों के नेताओं, सांसदों और मंत्रियों ने लगातार नफरत और विद्वेष फैलाने वाले बयान दिए, एक-के-बाद एक तीन लेखकों की हत्या हुई, गोमांस खाने के संदेह के कारण कई मुसलमान मारे गए, विरोध प्रकट करने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी गई लेकिन हर मुद्दे पर ‘मन की बात' कहने वाले मोदी इस पर कुछ नहीं बोले. बीजेपी की हार के पीछे यह भी एक बड़ा कारण था.

लोकसभा चुनाव के दौरान किए गए वादों को नरेंद्र मोदी ने एकदम भुला दिया. जिस सुशासन और विकास की लोगों को उनसे उम्मीद थी, उस पर ध्यान न देकर वे लगातार एक-के-बाद-एक राज्य चुनाव में इस तरह प्रचार करने लगे मानों वे स्वयं वहां उम्मीदवार हों. बिहार के नतीजों का एक असर यह हो सकता है कि अब प्रधानमंत्री सुशासन और विकास पर अपेक्षित ध्यान देने लगें.

पहले दिल्ली और अब बिहार के नतीजों के बाद राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी राजनीति में नए समीकरण बनने की संभावना पैदा हो गई है. बिहार के नतीजों ने दिखा दिया है कि यदि विपक्षी पार्टियां एक हो जाएं तो वे मोदी जैसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी को भी हरा सकती हैं. इस प्रयोग को इसी तरह प्रत्येक राज्य में दुहराना तो संभव नहीं होगा, लेकिन इससे विपक्ष को यह सबक जरूर मिला है कि एकता के जरिये वह बीजेपी की चुनौती का सामना कर सकता है. असम और पश्चिम बंगाल की स्थिति बिहार से बहुत भिन्न है. लेकिन बिहार के सबक का वहां भी दानिशमंदी के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि वहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने हैं. यदि बीजेपी ने बिहार की हार से सबक सीखे, तो उनके कारण भी राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव आ सकते हैं.