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भारतीय राजनीति का दबंग काल

३ अप्रैल २०१५

भारत के एक केंद्रीय मंत्री का स्त्री विरोधी बयान हैरानी और विवाद में हैं. लेकिन इधर जिस गर्त में भारतीय समाज और भारतीय राजनीति का एक हिस्सा गिरता दिखता है, उसमें ये कैसी हैरानी. हैरानी तो इस देश की चुप्पी पर है.

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तस्वीर: UNI

ये संसद के भीतर की कोई बहस होती तो हम इसे बहस के स्तर का गिरना कहते, लेकिन ये तो खुलेआम जबानी दबंगई है. गिरिराज सिंह सरकार बनने से पहले भी कई विवादास्पद बातें कह चुके हैं और मीडिया में काफी कवरेज भी पा चुके हैं. अब या तो ये मान लिया जाए कि वे राजनैतिक और नैतिक शुचिता या मर्यादा से अनभिज्ञ हैं या वे जानबूझकर ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे न सिर्फ धार्मिक और जातीय बल्कि लैंगिक आधार पर भी ख़तरनाक ध्रुवीकरण नजर आता है. यानी जिस राजनीति से वो निकल कर आए हैं उसी राजनीति को केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद पोषित कर रहे हैं और उन्हें इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके बयान से देश या उनकी अपनी सरकार की छवि का क्या असर और पैगाम पूरी दुनिया और पूरे समाज और पूरी स्त्री जाति में क्या जाता है.

असल में संसद के भीतर बयान या बहस हो या उससे बाहर, नेता बिरादरी इधर नए ढंग से वाचाल बन रही हैं, ये एक नई गिरावट है. इसी राजनीतिक सर्किल में हम कई गंभीर और उत्तेजनापूर्ण बहसें और विचार सुनते देखते हैं और इसी गलियारे में ऐसी अनर्गल बातें सुनने को मिलती हैं. लेकिन इस देश की राजनीति में बहस या आरोप प्रत्यारोप का स्तर पहले तो ऐसा नहीं था. देश की राजनीति में एक दौर में खलनायिका करार दे दी गई इंदिरा गांधी के खिलाफ भी इस कदर घटिया आक्षेप नहीं लगाए गए थे. किसी ने वो लाइन कभी नहीं लांघी. हाल के इन नेताओं को क्या हो गया है. वे क्यों इतनी घृणा और गुस्से से भरे हैं. वे क्यों भूल जाते हैं कि इस देश की सामाजिक और नैतिक संरचना इतनी नाज़ुक और संवदेनशील है कि उसमें ऐसी सोच और ऐसे बोल नहीं अंटते हैं.

हैरानी है तो हमें इस बात पर भी है कि निर्धारित मौकों पर देश के विभिन्न वर्गों से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री अपने इन मुंहफट और अशालीन बयानों वाले नेताओं और मंत्रियों के लिए मन की बात कभी करेंगे भी या नहीं. इन हरकतों पर वे चुप क्यों हैं. होना तो ये चाहिए कि न सिर्फ मोदी ऐसे नेताओं से मन की बात करें बल्कि उनके लिए विशेष ट्रेनिंग की भी व्यवस्था कराएं. इसमें उन्हें मीडिया से संवाद करने, वक्तव्य, प्रतिक्रिया देने, रोष जाहिर करने या किसी अन्य नेता के बारे में टिप्पणी करने के टिप्स दिए जाएं. और उससे भी ज्यादा उन्हें व्यक्ति, स्त्री, धर्म, जाति, समुदाय और धर्म की गरिमा को कभी न भूलने का पाठ सिखाया जाए. उन्हें वो सब फिर से बताया जाए जिसे वे सत्ता राजनीति के अहंकार और भीषण चमचमाती रोशनियों में भूल गए हैं या याद नहीं रखना चाहते हैं. इतने भर से काम नही चलेगा. अगर कोई नेता या मंत्री फिर भी नहीं मानता है तो उसके लिए संवैधानिक दायरे में किसी क़िस्म की सजा का प्रावधान भी किया जाना चाहिए. आखिर आप कड़े प्रशासक माने जाते हैं, कुछ तो करेंगे.

स्त्रियों पर यौन हमलों को किसी न किसी रूप में जायज ठहराने वाले बयान इसी पॉलिटिक्ल बिरादरी से हमें हाल में सुनने को मिले हैं, धार्मिक और जातीय टकराहटों वाले बयान भी इसी समुदाय से गाहेबगाहे निकलते रहते हैं, ऐसा लगता है कि नेता हो जाना यानी ताकतवर हो जाना है यानी कुछ भी कह देने का अघोषित प्रमाणपत्र मिल जाना है. क्या एक दिन इन्हीं भीषणताओं और विडंबनाओं से होते हुए राजनीति पूरी तरह दबंगों के नाम हो जाएगी.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी