"भारतीय महिलाएं चुनाव हारीं"
२१ अप्रैल २०१४अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संगठन की प्रमुख सदस्य और सीपीएम नेता 67 साल की अली इस बार भी पश्चिम बंगाल के बैरकपुर से चुनाव मैदान में हैं. चाहे सभी पार्टियां महिला अधिकारों के लिए बड़ी बड़ी बातें कर रही हों लेकिन ज्यादातर पार्टियों ने महिलाओं को बहुत कम टिकट दिए हैं.
10 फीसदी से कम
दिल्ली के गैर सरकारी संगठन एडीआर के आंकड़ों के मुताबिक इस बार के चुनाव में पहले पांच चरणों में कुल 3,355 उम्मीदवार हैं, जिनमें महिलाएं सिर्फ सात फीसदी हैं. संस्था चुनाव में पारदर्शिता की अपील कर रहा है. भारत में कुल मतदाताओं का 47.6 फीसदी यानी करीब 38 करोड़ महिलाओं की हिस्सेदारी है. जानी मानी महिला अधिकार कार्यकर्ता रंजना कुमारी का कहना है, "जब संसद में हमारी हाजिरी अहम नहीं मानी जाती, जब हमारे भविष्य के फैसले हमसे चर्चा के बगैर लिए जाते हैं, तो हम उन नेताओं को क्यों वोट दें, जो इस देश में महिला सशक्तिकरण में विश्वास नहीं रखते."
महिला अधिकार संगठन जेडब्ल्यूपी की ज्योत्सना चटर्जी तो कहती हैं, "इस चुनाव में हमें महसूस हो रहा है कि हम हार चुके हैं."
भारत में पिछले आम चुनाव में 8,070 उम्मीदवार थे, जिनमें से 556 महिलाएं थीं. यानि सिर्फ 6.9 फीसदी. इनमें से 59 महिलाएं जीत कर संसद तक पहुंचीं. यानि उन्होंने मर्दों से बेहतर प्रदर्शन किया. और यह संख्या भारत में महिला सांसदों की सबसे बड़ी संख्या है. भारत में संसद में महिलाओं को एक तिहाई हिस्सेदारी देने का विधेयक लगभग 18 साल से लटका पड़ा है और राजनीतिक पार्टियां इसकी राह में कोई न कोई रोड़ा अटका देती हैं.
कोटे में कोटा
अगर यह विधेयक लागू हुआ, तो भारत में लोकसभा की 180 सीटें महिलाओं के नाम हो जाएंगी. रोड़ा अटकाने वाली पार्टियों का कहना है कि कोटे में कोटा होना चाहिए, यानि एक तिहाई हिस्से में अनुसूचित जाति, जनजाति और दूसरे पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए जगह आरक्षित होनी चाहिए.
भारत के विकास में आम तौर पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. घर, दफ्तर से लेकर स्कूल, और बैंकों में ज्यादा महिलाएं नजर आती हैं. लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं हो पाया है. अली का कहना है, "महिलाओं की स्थिति में तब तक कोई बदलाव नहीं आने वाला है, जब तक महिला आरक्षण बिल लागू नहीं हो जाता."
कांग्रेस, बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने अपने अपने चुनावी घोषणापत्रों में वादा किया है कि वे महिलाओं की स्थिति पर खास ध्यान देंगे लेकिन इस तरह के वादे पहले भी किए जा चुके हैं. राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष और दो बार सांसद रह चुकीं 70 साल की मालिनी भट्टाचार्य का कहना है, "जब तक उनकी सोच नहीं बदलेगी, तब तक हम उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि ज्यादा महिला उम्मीदवारों को मौका मिलेगा."
हालांकि रूथ मनोरमा जैसी महिलाओं ने हार नहीं मानी है. बैंगलोर से चुनाव मैदान में उतरीं मनोरमा कहती हैं, "महिलाओं को ज्यादा भागीदारी देने के लिए हमें एक एक कर कदम उठाने होंगे."
कैसे चले लोकतंत्र
चटर्जी का कहना है कि आम तौर पर पुरुष नेताओं का तर्क होता है कि उन्हें चुनाव लड़ने के लिए उपयुक्त महिला उम्मीदवार नहीं मिल रही हैं, जबकि कई महिलाएं होती हैं, जिन पर किसी की नजर ही नहीं जाती. भारत के पंचायतों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण हासिल है और इस तरह वे छोटे स्तर पर प्रशासन में खासी भूमिका निभा रही हैं. कुछ राज्यों में तो महिलाओं की भागीदारी 50 फीसदी तक कर दी गई है.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानि भारतीय संसद के दोनों सदनों में महिलाओं की कुल संख्या सिर्फ 11.4 फीसदी है, जो दुनिया के औसत 21.8 फीसदी से काफी कम है. स्विट्जरलैंड के अंतर संसदीय संघ के आंकड़े बताते हैं कि अफगानिस्तान में 27.6 फीसदी और पाकिस्तान में 18.5 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी है.
एजेए/एएम (आईपीएस)