ब्रिटिश बागों से निखरा ताज
२८ अगस्त २०१३1899 से 1905 तक भारत के वायसराय रहे लॉर्ड कर्जन एक उत्साही बागबान भी थे. अमेरिकी इतिहासकार औजेनिया हर्बर्ट ने लिखा है कि लॉर्ड कर्जन ने एक तरह से ताजमहल पर "इंपीरियल मुहर" लगा दी जो बाद में यहां की सबसे मशहूर ऐतिहासिक इमारत बन गई. हर्बर्ट ने भारत में ब्रिटिश शासन के दौर में लगाए बाग बगीचों का एक विस्तृत इतिहास लिखा है. "फ्लोरा इंपायर" की लेखिका का कहना है कि कर्जन ने खुशबूदार पेड़ों, झाड़ियों और दूसरे पौधों को वहां से हटा कर ताज के दीदार को उभारा. अब हर तरफ से चौकोर छंटी झाड़ियों से सजा संवरा ताज हर साल लाखों सैलानियों को अपने पास बुलाता है. हर्बर्ट के मुताबिक, "बगीचों की छंटाई की गई लेकिन जिन लोगों ने उससे पहले उसे देखा था वो बताते हैं कि किस तरह हरियाली के दामन से धीरे धीरे रहस्य की तरह ताज की खूबसूरती से पर्दा उठा."
बाग लगाते ब्रिटिश
भारत की जमीन पर इस तरह बाग बगीचे लगाने वालों मे लॉर्ड कर्जन अकेले नहीं थे, बल्कि बागवानी की यह ब्रिटिश विरासत तो उनका शासन खत्म होने के 60 साल बाद भी जारी है. प्रवासी अंग्रेजों ने भारत के पार्कों और बगीचों पर अपनी पहचान छोड़ी और उनमें से ज्यादातर आज भी वैसे ही व्यवस्थित, हरे भरे और सजे संवरे हैं. हर्बर्ट ने अपनी किताब में लिखा है कि अंग्रेजों ने "भारत की बागबानी पर गहरा असर छोड़ा, बल्कि इनके लिए भारत ने उतना नहीं किया." हर्बर्ट की किताब में औपनिवेशिक दौर के ब्रिटिश अधिकारियों के लिखे खत और डायरियों के अंश शामिल हैं.
अंग्रेज जब 17वीं सदी में पहली बार भारत आए तो उन्होंने देखा कि यह विशाल देश अनजान लेकिन हरा भरा और आकर्षक फूलों से भरा था जिनके लिए वो बड़ी मेहनत से रच कर तैयार किए अपने बागों में तरसते थे. घर से बहुत दूर उन्हें ऐसी गेंदा, गुलबहार और दूसरे फूल, झाड़ियां और पौधे मिल रहे थे. मलेरिया, हैजे जैसी महामारियों से लगातार जूझते भारत के फल फूल और हरियाली में ही उन्हें सकून और चैन मिलता था. हर्बर्ट कहती हैं, "चाय की तरह ही बगीचे भी प्रवासियों को तनाव की स्थिति में भरोसा जगाते."
कैसा लगता है फूल
एक विदेशी धरती पर किसी सैन्य अधिकारी की बीवी को बाग लगाने में क्या मजा आता है इसका जिक्र एक ब्रिटिश सैनिक अधिकारी की पत्नी एडिथ क्यूथेल ने अपनी मां को लिखे खत में किया है, "मेरे बनफशा खिल उठे हैं, तुम सोच भी नहीं सकती कि यहां वो फूलों की कितनी बड़ी दौलत है, मेरे प्यारे अंग्रेज फूल." अंग्रेज जहां भी गए वो बागों के रूप में "संस्कृति का झोला" अपने साथ ले कर गए. मौजूदा दौर में बागों को लेकर उनकी सोच सबसे प्रभावशाली रूप में भारत में ही दिखती है. हर्बर्ट ने यह किताब लिखने में करीब 10 साल मेहनत की. उनके मुताबिक आम तौर पर बागों का जिम्मा महिलाओं का होता क्योंकि पतियों के दौरे पर रहने के कारण अक्सर उन्हें अपनी बोरियत मिटाने का सबसे अच्छा तरीका यही दिखता. इसके लिए उनके पास माली होते जो उनकी सोच पर अमल करते. यहां मजदूरी सस्ती थी और ऐसे में सारा काम हाथों से ही होता. एक एक झाड़ी, पेड़, घास, पौधे सब हाथों से लगाए हुए हैं.
हालांकि अंग्रेजों के लगाए बागों की तुलना अगर मुगलों के लगाए बाग से करें तो वो उनके सामने कुछ भी नहीं. मुगल गार्डन इसकी जीती जागती मिसाल है. दिल्ली में बने हुमायूं के मकबरे की बारे में भी यही कहा जाता था. हालांकि बाद में मुगल सत्ता के मिटने के साथ देखरेख की अभाव में यह दम तोड़ गया. कुछ साल पहले आगा खां ट्रस्ट ने उसे दोबारा जिंदा करने की कोशिश की है.
एनआर/एजेए(एएफपी)