बौनों का थिएटर
भारत के असम राज्य में एक संस्था बौने लोगों के साथ मिलकर एक खास तरह के थिएटर चला रही है. बौने लोगों को मंच देकर ऐसे थिएटर का निर्माण किया गया है जिसका मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं बल्कि इन लोगों को इज्जत का दर्जा दिलाना है.
क्या कहें
करीब 30 बौने 'किनु कोउ' नाम का एक नाटक पेश करते हैं जिसका अर्थ है 'क्या कहें'. यह नाटक 2011 से प्रस्तुत किया जाता रहा है. इसे लेकर आया है भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम के तांग्ला में बना एक बौनों का थिएटर समूह. यह समूह अदाकार और निर्देशक पबित्रा राभा के स्थानीय नॉन प्रॉफिट संस्था 'दपन' का हिस्सा है.
भेदभाव
यह अदाकार कहता है कि हर बार जब वह घर से बाहर कदम निकालता है तो लोगों की नजरों और तानों से उसका दिल दुखता है. नाटक में दिखाया जाता है कि अपनी शारीरिक स्थिति की वजह से इन लोगों को रोज क्या क्या दुश्वारियां झेलनी पड़ती हैं.
कलंक
भारतीय समाज में बौने लोगों को उपहास का पात्र बनाया जाता रहा है, खासतौर पर अगर वह गरीब हों. इस कलंक के साथ जीना कई बार इतना मुश्किल होता है कि वे स्कूल जाना छोड़ देते हैं और खुद को घर की चारदीवारी में बंद कर लेते हैं.
मौका
लेकिन अब ये बौने कलाकार देश भर में घूम घूम कर अपना नाटक पेश कर रहे हैं. उन्हें अपनी कला दिखाने का मौका मिल रहा है. नाटक की तैयारी के लिए ये आवाज की ट्रेनिंग, रिहर्सल और थिएटर वर्कशॉप भी आयोजित करते हैं.
व्यावसायिक प्रशिक्षण
इन कलाकारों को शिल्प के साथ साथ व्यावसायिक तरीके से खेती करने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है. ये आलू, अदरक और सरसों उगाना भी सिखाते हैं.
समुदाय की मदद
सप्ताहांत पर ये अदाकार अपने समुदाय के बीच जाकर बच्चों और उन लोगों के लिए थिएटर वर्कशॉप आयोजित करते हैं जो एक्टिंग करना सीखना चाहते हैं.
जीवन को मिला नया अर्थ
55 साल के अक्षय कुमार इस समूह में सबसे बड़े हैं. वह कहते हैं कि थिएटर ने उन्हें नई जिंदगी दी है. कुल अदाकारों में सात औरतें भी हैं. ये सभी राभा की खानदानी जमीन पर बने एक दो कमरों के ट्रेनिंग सेंटर में रहते हैं.
एक प्यारा सपना
पबित्रा राभा चाहते हैं कि वह एक ऐसा गांव बसाना चाहते हैं जहां थिएटर का शौक रखने वाले लोग, नाटक मंडलियां साथ रहें और सीख सकें.