बॉलीवुड में अनुशासन की कमीः ओमपुरी
३१ अगस्त २०१३अभिनय के जरिए बॉलीवुड में एक खास मुकाम बनाने वाले इस अभिनेता ने हॉलीवुड की कई फिल्मों और सीरियलों में भी अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ी है. एक निजी कार्यक्रम के सिलसिले में कोलकाता आए इस अभिनेता ने डॉयचे वेले के साथ बातचीत में अपने अतीत के कुछ पन्ने पलटे. पेश है उस बातचीत के मुख्य अंशः
डॉयचे वेले: क्या आप अपने करियर की शुरुआत अभिनय से करना चाहते थे?
ओम पुरी: स्कूल में पढ़ाई के दौरान मैं सेना में शामिल होना चाहता था. कालेज के दिनों में मैं वहां होने वाले नाटकों में काम करने लगा और धीरे धीरे यह एक नशा बन गया. स्कूल के दिनों में मैं बेहद शर्मीला था. लेकिन नाटकों ने मेरी भावनाओं को आवाज दे दी.
क्या आपको कला फिल्में ज्यादा पसंद हैं?
मैं सामाजिक नजरिए से अहम फिल्मों को तरजीह देता रहा हूं. कला फिल्मों ने मेरी साख और एक अभिनेता के तौर पर मेरी पहचान बनाई है, लेकिन व्यावसायिक सिनेमा ने मुझे आरामदेह जीवन दिया है.
आपको बॉलीवुड और हॉलीवुड में कौन ज्यादा पसंद है?
मैं बेहतर सिनेमा को तरजीह देता हूं. यह चाहे बॉलीवुड में हो या हॉलीवुड में. मैं ऐसे विषयों को चुनता हूं जिनकी वैश्विक अपील हो.
बॉलीवुड में क्या बदलाव आया है?
बॉलीवुड में अनुशासन की कमी है. बड़े स्टार देर से सेट पर पहुंते हैं और कई बार तो लंबे इंतजार के बाद पहुंचते ही नहीं. लेकिन पिछले एक दशक में यहां सकारात्मक बदलाव आया है. इंग्लैंड में मेरे काम करने का अनुभव बहुत अच्छा रहा है. वहां की कार्य संस्कृति बॉलीवुड के मुकाबले काफी बेहतर है.
अपने लंबे करियर में क्या आपको अपनी गलतियों पर कोई अफसोस है?
गलतियां तो इंसान से ही होती हैं. मैंने अपने करियर में अगर गलतियां की भी हैं तो उनको याद रखना चाहता हूं ताकि उनको दोहराने से बच सकूं.
आपने पश्चिम की कुछ फिल्मों में भी काम किया है. क्या आपको कभी वहां रंगभेद का सामना करना पड़ा?
वर्ष 1984 में पहली बार वहां जाने पर मुझे इसका सामना करना पड़ा था. लेकिन बाद में वह बदल गया.
गंभीर कला फिल्मों से करियर शुरू करने के बाद आपने कई कॉमेडी फिल्मों में भी काम किया. क्या किसी खास मुकाम के बाद अभिनेता एक खास किरदार में ढल जाता है?
मैंने अपना करियर कामेडी से शुरू नहीं किया था. खासकर आक्रोश के बाद तो लोग मुझे ऐसे अभिनेता के तौर पर जानने लगे थे जिसका चेहरा गंभीर है और वह कभी किसी को हंसा नहीं सकता. बाद में मैंने बिच्छू नामक एक नाटक में कॉमेडी रोल निभाया. उस नाटक ने ही 'जाने भी दो यारो' में मुझे रोल दिलाया. वह कॉमेडी रोल के सफर की शुरुआत थी. मैंने खुद पहल कर अपने ऊपर लगे गंभीर अभिनेता के ठप्पे को तोड़ा था.
अपने लंबे करियर में आपको हिंदी फिल्म उद्योग से गिले-शिकवे भी जरूर होंगे?
हां, ऐसा होना स्वभाविक है. बालीवुड के निर्माता और दर्शक सिर्फ सुपरस्टारों का ही ख्याल रखते हैं. चरित्र भूमिकाएं निभाने वाले अभिनेताओं को बेहतर भूमिकाएं कम ही मिलती हैं. चरित्र अभिनेताओं का काम हीरो के किरदार को महत्वपूर्ण बनाना है. उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती. लेकिन अब बिना सुपरस्टार के भी फिल्में कामयाब हो रही हैं. व्यावसायिक सिनेमा ऐसे अभिनेताओं की अनदेखी करता है.
इंटरव्यू: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी