बर्लिन में स्टाजी की जेल
बर्लिन के होएनशोएनहाउजेन इलाके में जीडीआर की राष्ट्रीय सुरक्षा (स्टाजी) मंत्रालय की केंद्रीय जेल थी. आज यहां पीड़ितों की याद में खड़ा एक स्मारक है. साथ ही यह साम्यवादी तानाशाही के दौरान न्याय व्यवस्था का सबूत है.
पुरानी इमारत
1945 के बाद से सोवियत संघ ने इसे कैदियों के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया. इसके तहखाने में पूछताछ के लिए जेल बनाई गई. वहां रहे कैदियों के अनुसार उन्हें रात भर जगा कर रखा जाता, लातें मारी जातीं या फिर घंटों खड़ा रखा जाता. खाना, कपड़े और साफ सफाई की हालत खराब थी. करीब हजार लोग यहां जान से हाथ धो बैठे.
पनडुब्बी
1951 में सत्ताधारी एसईडी पार्टी की नई खुफिया पुलिस स्टाजी ने जेल अपने हाथ में ली. 1950 के दशक में तहखाने में उन लोगों को रखा गया था जिन्होंने साम्यवादी तानाशाही का विरोध किया जिसमें 17 जून 1953 को हुए विद्रोह के नेता भी शामिल थे. चूंकि यहां सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती थी इसलिए कैदी इसे पनडुब्बी कहते थे.
नई इमारत
1950 के दशक में 200 सेलों वाली नई जेल बनाई गई. शारीरिक प्रताड़ना की जगह मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाने लगा. 1961 में दीवार बनने के बाद उन लोगों को यहां बंद किया जाता जो जीडीआर से भागने या देश छोड़कर जाने की कोशिश करते. उनके अलावा लेखकों और नागरिक अधिकार के लिए लड़ने वालों को भी.
कैदियों का परिवहन
1970 के बाद से कैदियों को इस तरह के बारकस बी 1000 से शहर होते हुए होएनशोएनहाउजेन की जेल में लाया जाता था. बाहर से मछलियों या सब्जियों का ट्रांसपोर्ट करने वाली दिखती इन गाड़ियों में पांच छोटे छोटे केबिन थे और खिड़कियां भी नहीं थी. 90 फीसदी कैदी स्टाजी की पहली पूछताछ में ही सब बताने को तैयार हो जाते.
कैदी नंबर
जेल में किसी कैदी का नाम नहीं होता, उन्हें एक नंबर दिया जाता और उसी से बुलाया जाता. अक्सर कैदियों को महीनों तक अकेले कमरे में बंद रखा जाता. सुरक्षा के लिए तैनात पुलिसकर्मी से बात करने पर भी रोक थी. इकलौता व्यक्ति जिससे कैदी बात कर सकता था, वह था उससे पूछताछ करने वाला पुलिस अधिकारी.
जेल की सेल
एक बड़ी सेल में तीन कैदियों को रखा जाता. खिड़की से वह बाहर कुछ नहीं देख पाते थे. आइना और गर्म पानी पहली बार 1983 के बाद से मिलने लगा. दिन में कोई नहीं लेट सकता था. रात में भी सिर्फ पीठ पर, दरवाजे की ओर मुंह करके और हाथ कंबल के ऊपर रख कर ही सोने की इजाजत थी.
दरवाजे पर जासूस
दरवाजे पर लगा पीपहोल कैदियों के लिए बहुत बुरा अनुभव था. पहरेदारी करने वाला पुलिसकर्मी कभी भी कैदी को उससे होकर देख सकता था. कैदियों की नहाने के दौरान या टॉयलेट में भी चेकिंग की जाती थी. रात को हर 10-12 मिनट में लाइट जलाई जाती. लाइट और हीटिंग दोनों ही बाहर से नियंत्रित होती थी.
अलार्म
फ्लोर पर दीवारों से लगा हुआ एक धागा होता था. अगर किसी कैदी को पूछताछ के लिए बाहर लाया जाता तो एक कर्मचारी इस धागे को खींचता इससे लैंप लाल जलने लगते. अगर कोई कैदी बाहर हो तो उसे तुरंत दीवार की ओर मुंह करके खड़ा किया जाता. ताकि पता न चले दूसरा कैदी कौन है.
पूछताछ
सेल और पूछताछ के कमरे के बीच में जाली लगी होती थी. जीडीआर में इस्तेमाल किए जाने वाले थिनर की गंध अभी भी यहां आती है. सभी 120 कमरों में दोहरे दरवाजे थे. इसके पीछे महीनों तक कई घंटे की पूछताछ होती. इस दौरान कोशिश की जाती कि कैदी खुद ही अपने को दोषी मान लें ताकि उन्हें सजा दी जा सके.
मानसिक दबाव
स्टाजी के सदस्य मानसिक दबाव बढ़ाते थे. शुरुआत में वे कैदियों को लंबी सजा या परिजनों की गिरफ्तारी की धमकी देते, ताकि कैदी घबराने लगे. जो सहयोग करता उसे सजा में थोड़ी ढील का और चिकित्सा का वादा मिलता या फिर किताब पढ़ने को दी जाती. और आधा घंटा बाहर घूमने को मिलता.
खुले अहाते
सेल जैसे इन बक्सों से कैदी आसमान देख सकते और खुली हवा में सांस ले सकते थे. इन अहातों को टाइगर ट्रैप कहा जाता. यहां खड़े रहना या चार मीटर ऊंची बाहरी दीवार के पास जाना मना था और बोलना या गाना भी.
स्मारक
स्टाजी की इन जेलों का बर्लिन की दीवार गिरने के साथ खात्मा हो गया. सिर्फ कुछ ही जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाया गया. चूंकि इस जेल की इमारत और सेलें बच गई हैं, इसलिए यह जीडीआर की राजनीतिक न्याय प्रणाली का जीता जागता सबूत है.