बदलेगी ईंट भट्टे के मजदूर बच्चों की जिंदगी?
२९ अप्रैल २०१६7 साल की मनाल और उसकी 5 साल की बहन लाइबा अब स्कूल जाने लगे हैं. अभी एक महीने पहले वे ईंट की भट्टी में अपने मां बाप के साथ काम किया करते थे. लेकिन सरकार की ओर से उनके समुदाय के लिए एक नई पहल की गई और वे स्कूल जाने लगे. जनवरी में पंजाब की विधान सभा ने प्रांत में ईंट के भट्टों में बाल मजदूरी को लेकर एक अध्यादेश पारित किया है. इसके मुताबिक उन मां बापों को जो अपने बच्चों को ईंट के भट्टों में मजदूरी करवाने के बजाय स्कूल भेजेंगे, हर माह 3 हजार रुपये देने का प्रावधान किया गया है. इसके साथ ही उपस्थिति के लिए हर माह 1 हजार रुपये देने का प्रावधान है.
इस कानून में भट्टी मालिकों के लिए भी सख्त नियम बनाए गए हैं. अगर वे किसी भी तरह अपने कर्मचारियों को उनके बच्चों को स्कूल भेजने में रुकावट डालते हैं तो उन्हें जुर्माना या जेल हो सकती है. इस अध्यादेश के दायरे में कम से कम 14 साल तक के बच्चे शामिल हैं. लेकिन कई वजहों से ये समुदाय अब भी इन कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं और बच्चों को स्कूलों से दूर रख रहे हैं. जिसके चलते अशिक्षा और गरीबी का चक्र तोड़ने के लिए सरकार की ओर से किए जा रहे प्रयास बेकार साबित हो रहे हैं.
हालांकि इस्लामाबाद के बाहरी इलाके की एक भट्टी के प्रबंधक राजा असगर बताते हैं कि कुछ परिवार इस नई योजना में हिस्सा ले रहे हैं. ''यहां काम कर रहे परिवारों के 5 लड़कों और 2 लड़कियों को स्कूल भेजा गया है.''
इन्हीं बच्चों में मनाल और लाइबा भी हैं और अब धीरे धीरे अपनी पुरानी दिनचर्या के बजाय वे स्कूल जाने की आदत डाल रहे हैं. मनाल कहतीं है, ''मैं स्कूल जा कर खुश हूं. लेकिन मुझे यहां खेलने कूदने की याद आती है.'' इन बच्चों में सबसे बड़ा 9 साल का रजब अली कहता है, ''मैं पढ़ाई पूरी कर सेना में भर्ती होऊंगा या डॉक्टर बनूंगा.'' 4 साल का रेहान साकिब इन स्कूल जाने वाले बच्चों में सबसे छोटा है.
इन बच्चों के स्कूल जाने के लिए इनके मां बाप को सरकार की ओर से बच्चों के श्रम के हिस्से का मुआवजा दिया जा रहा है. इस तरह के बच्चे अपने मां बाप को ईंट बनाने में मदद करते हैं. असगर बताते हैं कि आम तौर पर बच्चों की मदद से एक मजदूर दंपति दिन भर में तकरीबन 500 ईंटें बना लेता है जिनसे उन्हें 350 रुपये की आमदनी होती है.
ईंट भट्टे के मजदूरों के बीच शिक्षा के लिए काम कर रहे संगठन पंजाब एजुकेशन फाउंडेशन के तारीक महमूद कहते हैं, ''हम जानते हैं मां बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने से इस लिए बचते हैं क्योंकि उन्हें पैसे का नुकसान होता है. लेकिन अब उन्हें इसके लिए पैसा दिया जा रहा है.'' महमूद कहते हैं कि उनका अभियान काफी सफल हुआ है, ''इस कानून के पास होने के बाद से 40 हजार से अधिक ऐसे बच्चे स्कूलों में दाखिल हुए हैं.'' लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि बच्चों के स्कूल में दाखिले की ये तादाद असल में प्रभावित बच्चों की तुलना में बेहद कम है.
बंधुआ मजदूर मुक्ति संगठन से जुड़ी स्येदा गुलाम फातिमा बताती हैं कि पूरे पंजाब प्रांत में 6 हजार के सरकारी अनुमान से कहीं ज्यादा इस तरह की 10 हजार भट्टियां हैं. और हर एक भट्टी में तकरीबन 35 मजदूर परिवार हैं और हर एक के पास औसतन 4 बच्चे हैं. वे कहती हैं इस हिसाब से स्कूलों में हुए दाखिलों की संख्या 14 लाख के आसपास होनी चाहिए, ''सरकार के पास असल में कोई ठीक आंकड़ा है ही नहीं. जो भी उपलब्धि बताई जा रही है वो असल में कुछ भी नहीं है. और यह मेरी चिंता की वजह है.''
इसके साथ ही इन मजदूरों को सरकार की ओर से फ्री किताबें, स्टेशनरी, यूनिफार्म, बैग और जूते दिए जाने के वादे में भी देरी की शिकायत की जा रही है. मनाल और लाइबा के पिता मुहम्मद अनवर कहते हैं, ''हमें अब तक कोई पैसा नहीं मिला है. और बच्चों को भी कापी-किताबें और दूसरी चीजें नहीं मिल पाई हैं. मैंने खुद से ही सब कुछ खर्च किया है यहां तक कि स्कूल फीस भी.''
लेकिन इस सब के बावजूद अनवर खुश हैं कि उनकी बेटियां पढ़ने जा रही हैं. वे कहते हैं, ''मैं अपने पिता के साथ काम किया करता था और वही करता रहा. लेकिन मेरे बच्चे पढ़ाई करने के बाद अच्छी नौकरी पा सकेंगे और ठीक ढंग से रह पाएंगे.''
आरजे/एमजे (डीपीए)