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फर्जी ट्रायल रिपोर्ट से फार्मा उद्योग में हड़कंप

११ दिसम्बर २०१४

जेनेरिक दवा दोषपूर्ण अध्ययन को लेकर विवादों में है. ये अध्ययन भारत में कराए गए. जर्मन ड्रग एजेंसी ने 80 जेनेरिक दवाइयों की बिक्री रोक दी है. फार्मेसी उद्योग ने नुकसान से बचने के लिए मामले की जल्द जांच की मांग की है.

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तस्वीर: Fotolia/Nenov Brothers

जेनेरिक दवाओं का उत्पादन करने वाली कंपनियों के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा है. चिकित्सा क्षेत्र में बढ़ती कीमतों पर लगाम के प्रयासों में वे बड़ी मदद दे रहे हैं. इस बीच जर्मनी में दवाओं की जरूरत का 75 फीसदी जेनेरिक दवाओं से पूरा किया जा रहा है. यदि दवाओं का बुरा असर प्रमाणित होता है तो बीमा कंपनियां हर्जाने की मांग कर सकती हैं. उन्होंने अपने कानूनी अधिकारियों को मामले की जांच करने को कहा है. बीमा कंपनी टेक्निकर क्रांकेनकासे ने कहा, "कॉन्ट्रैक्ट के लिए जिम्मेदार वकील इस बात की जांच कर रहे हैं कि इस मामले का कानूनी नतीजा क्या हो सकता है."

सारा मामला तब शुरू हुआ जब शोध के लिए जिम्मेदार भारतीय शहर हैदराबाद की जीवीके बायोसाइंसेस कंपनी के एक प्लांट में दवा के टेस्ट के निरीक्षण के दौरान काफी गड़बड़ियां पाई गईं. बॉन में स्थिति जर्मन दवा और चिकित्सा उत्पाद संस्थान ने उसके बाद ब्लड प्रेशर कम करने वाली और डायबिटिज की दवाओं का लाइसेंस रद्द कर दिया. इस रोक से श्टाडा, डा. रेड्डीज, टोरेंट और लुपिन सहित 16 कंपनियां प्रभावित हैं. प्रो जेनेरिका संघ के प्रवक्ता ने इस बात की फौरन जांच की मांग की है कि जीवीके बायोसाइंसेस के प्लांट में सख्त नियमों का हनन कैसे हुआ.

Symbolbild - Chemiker im Labor
भारतीय रिसर्च पर सवालतस्वीर: Fotolia/kasto

जीवीके बायोसाइंसेस द्वारा 2008 से 2014 के बीच किए गए क्लीनिकल ट्रायल पर यूरोपीय मेडिसीन एजेंसी ईएमए का ध्यान तब गया जब फ्रेंच ड्रग एजेंसी एएनएसएम ने कुछ टेस्ट में इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ईसीजी) के नतीजों में धोखाधड़ी की शिकायत की. जीवीके प्रमुख मणि कांतिपुड़ी के अनुसार ईएमए ने कंपनी पर एक व्यक्ति के ईसीजी का इस्तेमाल कई बार करने का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि ये विसंगतियां कंपनी द्वारा किए गए टेस्ट के सिर्फ आठ फीसदी मामलों में पाई गई हैं. आलोचकों का कहना है कि भारत में कमजोर कानूनी प्रावधानों की वजह से दवाओं के ट्रायल का उद्योग तेजी से बढ़ा है.

दवाइयों को लाइसेंस देने के लिए जिम्मेदार जर्मन दवा और चिकित्सा उत्पाद संस्थान के प्रमुख कार्ल ब्रोख ने इस बात की आलोचना की है कि दवाओं की क्लीनिकल स्टडी बढ़ते पैमाने पर विकासशील देशों में कराई जा रही है. उन्होंने कहा कि हालांकि दवाइयों के टेस्ट के लिए स्पष्ट नियम हैं, लेकिन मरीजों और टेस्ट करने वालों की सुरक्षा के हमारे ऊंचे स्तर को देखते हुए हम इस पर चिंतित हैं कि बढ़ते पैमाने पर अध्ययन यूरोप के बाहर विकासशील देशों में कराए जा रहे हैं.

सभी जेनेरिक दवा कंपनियों को दवाओं का लाइसेंस लेने के लिए एक बायो-इक्वीवेलेंस टेस्ट में दिखाना पड़ता है कि दवाओं में इस्तेमाल अवयव मूल दवा जैसे ही हैं और उनकी दवा सुरक्षित है. इस टेस्ट के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़े नियम हैं. इसके अलावा राष्ट्रीय ड्रग एजेंसियां समय समय पर मौके पर भी जांच करती है, जैसा हैदराबाद में किया गया. लेकिन भारतीय उत्पादकों पर नजर रखने के लिए अधिकारियों के पास संसाधनों का अभाव है. ब्रोख का कहना है कि मौके पर ज्यादा निरीक्षकों को रखने के लिए कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने का इरादा है.

फार्मेसी कंपनियां खर्च बचाने के लिए बढ़ते पैमाने पर भारत में दवाओं का टेस्ट करा रही हैं. लेकिन यह एकमात्र वजह नहीं है. भारत जेनेरिक दवाओं का देश है, जिसके कारण उसके पास इसकी विषेषज्ञता भी है. रैनबैक्सी, डा. रेड्डीज और सन फार्मास्युटिकल जैसी देश की सभी प्रमुख फार्मेसी कंपनियां दवाओं की कॉपी बनाती हैं. पिछले सालों में भारतीय कंपनियों ने यूरोप में विस्तार किया है. जर्मनी का बेटाफार्म 2006 से ही डा. रेड्डीज के नियंत्रण में है.

एमजे/एजेए (रॉयटर्स)