जीवन के बीसवें और तीसवें दशक में पुरुषों की ही तरह पढ़ी लिखी महिलाओं को भी अपनी पसंद के करियर की तलाश होती है. यही वह उम्र भी होती है जब वे अपने ही परिवार और मित्रों की तरफ से कई तरह के दवाब झेल रही होती हैं. सभी को उनसे उम्मीद होती है कि वे किसी योग्य जीवनसाथी के साथ जल्द से जल्द घर बसाएं. इन सब दबावों को दरकिनार कर पाने में सफल होने पर ही उनके एक अदद करियर बनाने का सपना पूरा होने के आसार होते हैं. नौकरी मिल जाने पर भी कार्यस्थलों में महिला होने के कारण वेतन और तरक्की के मामले में उन्हें पक्षपात का सामना करना पड़ता है.
आज भी ऐसा मानने वालों की कोई कमी नहीं कि औरतों की सही जगह घर पर है. बदलते वक्त के साथ महिलाओं ने ना केवल तमाम क्षेत्रों में जिम्मेदारी से काम करते हुए अपनी जगह बनाई है, बल्कि घर की जिम्मेदारियों का दोहरा बोझ भी उठा रही हैं. अफसोस यह है कि ऐसे कुछ पुरुष जो निर्णायक जगहों पर बैठे हैं वे उन पर व्यापार या प्रबंधन से जुड़े मामलों में अब भी भरोसा नहीं कर रहे. यही कारण है कि किसी नए आइडिया को पेश करने वाली महिला उद्यमी को आज भी शुरुआती निवेश पाने में किसी पुरुष के मुकाबले कहीं ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है.
भारत ही नहीं ऐसे देशों में भी लिंग के आधार पर भेदभाव होता है जहां काफी बड़ी संख्या में कामकाजी महिलाएं हैं. हाल के कुछ सर्वेक्षण दिखाते हैं कि अब भी शादीशुदा जिंदगी का ज्यादातर बोझ महिलाओं के ही कंधों पर ही पड़ता है. महिलाओं को लेकर रिश्तों, घर, दफ्तर, समाज और वित्तीय संस्थानों तक में थोड़ा प्रोग्रेसिव नजरिया रखने के अलावा महिला उद्यमियों को अच्छा प्रशिक्षण देने पर भी ध्यान देना जरूरी है.
भारत समेत पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में आज भी 60 फीसदी से ज्यादा महिलाएं हिंसा के कारण राजनीति में नहीं आतीं. बीते कुछ सालों में भारतीय महिलाएं ग्राम पंचायत स्तर पर काफी सक्रिय हुई हैं. यह राह भी आसान नहीं है क्योंकि इन महिलाओं को हिंसा, गाली गलौज और चरित्र हनन के प्रयासों का लगातार सामना करना पड़ता है. कई बार तो सक्रिय हो रही महिलाओं का अपहरण और हत्या तक हो जाती है. राजनीति की ही तरह किसी भी व्यापार धंधे को स्थापित करने के लिए भी उन्हें सामाजिक दायरों में सक्रिय होने की जरूरत होती है, जिसका विरोध सामने आता है. ऐसे में अगर परिवार और जानने वाले उन्हें रोककर रास्ते का कांटा बनने के बजाए महिला का साथ दें तो तस्वीर पलट सकती है.
देश में कई गांवों की बागडोर आज कुछ ऐसी महिलाएं संभाल रही हैं जो किसी बड़ी से बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी तक को चलाने का माद्दा रखती हैं. जन्म से ही अपनी कई छोटी छोटी इच्छाओं का दम घोंटे जाने के बावजूद साहसी महिलाएं बहुत सारे आत्मविश्वास, सही प्रशिक्षण, नेक मकसद और परिवार के सहयोग के साथ नए नए आयाम गढ़ रही हैं. आपसी भरोसे से ही समाज और मानवता मजबूत बनती है, तो विश्वास के चक्र से महिलाओं को बाहर क्यों रखें.
ब्लॉग: ऋतिका राय