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पाकिस्तान खाली कर रहा है जेल के सेल

फ्लोरियान वाइगंड
४ अगस्त २०१५

पाकिस्तान में एक ऐसे व्यक्ति को फांसी दे दी गई है जो सजा देते समय कथित रूप से सिर्फ 14 साल का था. डॉयचे वेले के फ्लोरियान वाइगंड का कहना है कि आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में फिर से फांसी की सजा देना एक प्रचारवादी बहाना है.

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Gefängnis in Pakistan - Taliban-Gefangene ARCHIV 2001
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Guez

साफ साफ कहूं तो मैं मौत की सजा के खिलाफ हूं. वह मूल रूप से अमानवीय है क्योंकि वह न्यायाधीशों पर भी अविश्वसनीय जिम्मेदारी डालता है कि उन्हें जिंदगी और मौत का फैसला करना होता है. खासकर तब, जब दोष पर हल्का भी संदेह हो. ऐसा लगता है कि पाकिस्तान की न्यायपालिका इस जिम्मेदारी को बिना परेशानी के झेलना चाहती है. जब से पिछले दिसंबर में फांसी की सजा देने पर रोक हटाई गई है,180 लोगों को फांसी के फंदे पर लटकाया जा चुका है. और 8000 अभी इसका इंतजार कर रहे हैं. और इसमें सिर्फ संदिग्ध आतंकी ही शामिल नहीं हैं. उन्हीं के लिए दरअसल मौत की सजा पर तामील शुरू की गई थी, जब एक आतंकी गुट ने पेशावर में एक स्कूल पर हमला कर 150 बच्चों को मार डाला था.

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डॉयचे वेले के फ्लोरियान वाइगंड

अब दिख रहा है कि मौत की सजा के समर्थकों ने इस घटना को फांसी पर रोक खत्म करने का बहाना बनाया. इससे भी बुरी बात यह है कि मौत की सजा तब भी दी जा रही है जब शफकज हुसैन जैसे मामलों पर अपराध पर शक हो. ऐसा लगता है कि पाकिस्तान जेल के कमरों को खाली करना चाह रहा है. और यह दुनिया के दूसरे मुल्कों की तरह कमजोर वर्ग के लोगों को निशाना बना रहा है. शफकत हुसैन दूरदराज में स्थित कश्मीर के एक गरीब परिवार से नाता रखता था. उसके पास ऐसा कोई बर्थ सर्टिफिकेट नहीं था जो साबित करता कि वह सजा के समय नाबालिग था. अदालत में प्रभावी बचाव के लिए वकील रखने के लिए परिवार के पास धन नहीं था. और जजों ने मामले की फिर से समीक्षा करने की संयुक्त राष्ट्र की मांग को भी नजरअंदाज कर दिया.

गरीबी, संदेहास्पद नयायिक प्रक्रिया और अंतरराष्ट्रीय आलोचना की उपेक्षा का मिश्रण इस तरह के दूसरे मामलों के लिए अच्छा संकेत नहीं है. असिया बीबी का मामला दुनिया भर में सुर्खियों में था. उस पर ईसाई अल्पसंख्यक होने के नाते इस्लाम के अपमान का आरोप था. पाकिस्तान में इसके लिए मौत की सजा है. यहां भी सिर्फ आरोप थे. वह भी गरीब परिवार की थी और बहुत पढ़ी लिखी भी नहीं थी. महंगा वकील वह कर नहीं सकती थी, दूसरे वकील के लिए भी उसका केस लेना आत्मघाती होता क्योंकि उसपर इस्लाम का अपमान करने वाली की मदद का आरोप लगता. ऐसे मामलों में अंतरराष्ट्रीय संगठन मदद के लिए सामने आते हैं.

यदि पाकिस्तान के जज भविष्य में भी शफकत हुसैन के मुकदमे जैसा रवैया अपनाते हैं तो असिया बीबी पाकिस्तानी न्यायपालिका का अगला शिकार हो सकती है. फांसी की नई लहर का फायदा ऐसे लोग उठा सकते हैं जो हमेशा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को या मुश्किल पहुंचाने वाले किसानों, जमीन के झगड़े में दुश्मनों को हमेशा के लिए निबटाना चाहते हैं. इसलिए भी फांसी की सजा पर तुरंत रोक लगनी चाहिए. और सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं. क्योंकि जो दोषी नहीं होने के बावजूद जेल की सजा पाता है, वह स्थिति बदलने पर रिहा किया जा सकता है या हर्जाना पा सकता है. फांसी के फंदे पर चढ़ाए जाने के बाद फैसला बदलना नामुमकिन है.