पहुंच से दूर होती शिक्षा
१७ मई २०१५महानगरों में अब अपनी संतान को समुचित शिक्षा दिलाना खासकर वेतनभोगी माता-पिता के लिए काफी मुश्किल साबित हो रहा है. सरकारी स्कूलों की खामियों का लाभ उठा कर महानगरों के अलावा छोटे शहरों और कस्बाई इलाकों में निजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह फैलते जा रहे हैं. लेकिन उनकी लगातार बढ़ती फीस और दूसरे खर्चों ने अभिभावकों को मुश्किल में डाल दिया है. हालत यह है कि जिनके दो या उससे ज्यादा बच्चे हैं, सभी बच्चों का स्कूली खर्च उठाना उनके बूते से बाहर होता जा रहा है.
सरकारी स्कूलों का गिरता स्तर
देश में सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया है. लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यानि सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक न तो केंद्र ने ध्यान दिया है और न ही राज्य सरकारों ने. ग्रामीण इलाकों में स्थित ऐसे स्कूलों की बात छोड़ भी दें तो शहरी इलाकों में स्थित सरकारी स्कूल भी मौलिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमी से जूझ रहे हैं. इन स्कूलों में शिक्षकों की तादाद एक तो जरूरत के मुकाबले बहुत कम है और जो हैं भी वो प्रशिक्षत नहीं है. नतीजतन इन स्कूलों में पढ़ने वालों का सामान्य ज्ञान और संबंधित विषयों की जानकारी निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के मुकाबले बहुत कम होती है.
कुछ दिनों पहले हुए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि ज्यादातर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों का अनुपात बहुत ऊंचा है. कई स्कूलों में 50 छात्रों पर एक शिक्षक है. ग्रामीण इलाकों में तो हालात और दयनीय है. वहां स्कूल के नाम पर एक या दो कमरे हैं. और सौ छात्रों पर एक ही शिक्षक है. यही नहीं, सरकारी स्कूलों में एक ही शिक्षक विज्ञान और गणित से लेकर इतिहास और भूगोल तक पढ़ाता है. इससे वहां पठन-पाठन के स्तर का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. ज्यादातर स्कूलों में न तो शौचालय है और न ही खेल का मैदान. इन स्कूलों में निजी स्कूलों के मुकाबले फीस कम है. लेकिन सुविधाओं की कमी और पढ़ाई के स्तर की वजह से गरीब तबके के लोग भी अब इनकी जगह निजी स्कूलों को तरजीह देने लगे हैं.
शिक्षा का अधिकार कानून बेमानी
आखिर देश में सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर की वजह क्या है? इस सवाल का सीधा जवाब है, सरकारों में इच्छाशक्ति का अभाव. सरकारें इन स्कूलों में आधारभूत ढांचे को दुरुस्त ही नहीं करना चाहतीं. इसकी वजह है कि इनमें अब समाज के सबसे कमजोर और दबे-कुचले तबके के बच्चे ही पढ़ते है. सरकार की शिक्षा नीति में भी खामियां हैं. इन स्कूलों के पाठ्यक्रम में बरसों से कोई संशोधन नहीं किया गया है. इसके अलावा शिक्षकों के लाखों पद बरसों से खाली पड़े हैं. जो शिक्षक हैं भी, उनको पढ़ाने का तरीका नहीं पता है क्योंकि वे प्रशिक्षित नहीं हैं.
छात्रों के मुकाबले शिक्षकों की तादाद कम होने के कारण योग्य शिक्षक भी पूरी निष्ठा से अपना काम नहीं कर पाते. उनको पूरे दिन में अलग-अलग कक्षाओं में अलग-अलग विषय पढ़ाने होते हैं. इसके अलावा ज्यादातर स्कूलों के पास न तो ढंग का भवन है और न ही पेयजल, शौचालय और खेल के मैदान जैसी दूसरी आधारभूत सुविधाएं. शिक्षाविदों का कहना है कि सरकार को शिक्षक संघ के साथ सलाह-मशविरे के जरिए समय-समय पर पाठ्यक्रमों में सामयिक जरूरत के हिसाब से बदलाव करना चाहिए. इसके अलावा जरूरी तादाद में शिक्षकों की बहाली, आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराना और शिक्षकों के खाली पदों को भरना जरूरी है.
निजी स्कूलों की मनमानी
सरकारी स्कूलों के खराब स्तर की वजह से अभिभावकों के मुंह मोड़ने के कारण निजी स्कूलों की चांदी हो गई है. वह हर साल अपनी फीस मनमाने तरीके से बढ़ा देते हैं. सरकार के पास निजी स्कूलों की फीस पर नियमन का कोई तंत्र नहीं है. एसोचैम के महासचिव डीएस रावत ने पहुंच से बाहर होते शिक्षा खर्च पर चिंता जताते हुए कहा है कि स्कूली शिक्षा के स्तर और फीस पर निगाह रखना जरूरी है ताकि शिक्षा पहुंच से बाहर न चली जाए. केंद्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में ठोस पहल करनी होगी. ऐसा नहीं हुआ तो शिक्षा का अधिकार कानून बेमानी ही साबित होगा. लेकिन क्या सरकारों के पास इसके लिए समय और इच्छाशक्ति है?
ब्लॉग: प्रभाकर