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उत्तराखंडः सत्ता में सार्थक बदलाव की चुनौती

शिवप्रसाद जोशी
११ मार्च २०१७

उत्तराखंड में बीजेपी की अभूतपूर्व और रिकॉर्ड जीत ने कांग्रेस को स्तब्ध कर दिया है जिसका एक तरह से राज्य में सफाया ही हो गया है.

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तस्वीर: picture alliance / M. Swarup

उत्तराखंड के चुनाव में सबसे बड़ी हैरानी तो इस बात से हुई है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत दो-दो सीटों पर चुनाव हार गए और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को भी हार का मुंह देखना पड़ा. हालांकि एक बड़ा झटका बीजेपी के लिए ये था कि उसके प्रदेश अध्यक्ष और चुनाव संचालन समिति के अध्यक्ष अजय भट्ट भी अपनी सीट गंवा बैठे. वो मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदारों में एक थे.

बीजेपी की एकतरफा जीत पर खुद पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी सहसा यकीन नहीं हुआ होगा. हालांकि पिछले दिनों एक्जिट पोल्स में बीजेपी को भारी बढ़त दिखाई गई थी लेकिन राज्य में कई जानकार इतने बड़े अंतर की कल्पना नहीं कर रहे थे. यहां कांटे की टक्कर बताई गई थी. नतीजों से स्पष्ट है कि कांग्रेस और मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ जोरदार सत्ता विरोधी लहर थी. कांग्रेस के इतिहास में ये हार इसलिए भी हमेशा चुभती रहेगी कि यह एक ऐसे नेता की अगुवाई में हुई है जिस पर पार्टी आलाकमान ने एकतरफा भरोसा जताया था. सोशल 'वर्चुअल' मीडिया में हरीश रावत को बाहुबली बनाकर भी पेश किया गया लेकिन वास्तविक दुनिया में बाहुबली का सारा बल जाता रहा. 

कांग्रेस की हार के लिए हरीश रावत की ब्रांडिग और उनके आत्मकेंद्रित रवैये को भी जिम्मेदार बताया जाने लगा है. कई कांग्रेसी कार्यकर्ता और उम्मीदवार प्रशांत किशोर के चुनाव प्रबंधन से भी खासे नाराज थे. किशोर वही हैं, जो बिहार में नीतीश कुमार की जीत और उससे पहले 2014 के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत के सूत्रधार बताए गए थे. लेकिन यहां उनका जादू नहीं चल पाया. टिकट बंटवारे पर भी संगठन में नाराजगी थी. आंतरिक कलह तो पूरे पांच साल चलती रही, जिसका खामियाजा बगावत के रूप में पार्टी ने 2016 में भुगता. हरीश रावत के खिलाफ भ्रष्टाचार के कथित स्टिंग ऑपरेशन को भी बीजेपी ने खूब भुनाया. उन पर शराब माफिया से सांठगांठ के आरोप भी लगाए गए.

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बहरहाल बारी बारी से कांग्रेस और बीजेपी की सरकारें इस राज्य में आती रही हैं. मुख्य सवाल यही है कि सत्ता की खींचतान और वर्चस्व की इस राजनीति के बीच आम जनता की तकलीफों के निदान का कोई रास्ता भी है या नहीं. ऐसा देखा गया है कि एक पार्टी को बहुमत मिल जाने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं रहती कि पूरे पांच साल राजनैतिक स्थिरता बनी रहेगी और सरकार विकास कार्यों पर पूरी तरह केंद्रित रहेगी. इसके उलट, कई बार कुर्सी बचाने और आपसी षड़यंत्रों से ही निपटने में सत्ताधारियों के दिन खर्च होते जाते हैं. 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों के बाद बनी सरकारें इसकी मिसाल हैं. जहां दो साल से ज्यादा कोई मुख्यमंत्री रह ही नहीं पाया. ये प्रवृत्ति घातक है और राज्य को पीछे धकेलती है. कहने को राज्य इस समय देश का छठा सबसे अमीर राज्य है लेकिन ये अमीरी प्रति व्यक्ति आय के उन आंकड़ों से है जिसका संबंध पहाड़ी आर्थिकी से जुड़े कृषि या सेवा सेक्टर से कम, निर्माण सेक्टर और जमीन आदि के व्यापार में उछाल से ज्यादा है. एक अन्य समस्या जो इस राज्य के सामने आएगी वो है विधानसभा के भीतर मजबूत विपक्ष का अभाव. इस बार तो लगता है कि एक जर्जर संख्या बल के सहारे कांग्रेस रूपी आगामी विपक्ष अपनी आवाज में कितनी धार ला पाएगा, कहना कठिन है.

ये कहना जल्दबाजी है कि पूर्ण बहुमत मिल जाने से बीजेपी में सत्ता की खींचतान का अंदेशा नहीं रहेगा. सबसे पहले तो सरकार के मुखिया की लड़ाई सामने है. सीएम कौन बनेगा. करीब आधा दर्जन चेहरे सामने हैं. जाहिर है राजनैतिक दलों की इन अंदरूनी पेंचीदगियों और महत्वाकांक्षाओं का जनता की आकांक्षाओं और उम्मीदों से टकराव बना रहता है. बीजेपी को ये फायदा हो सकता है कि केंद्र में उसकी ही सरकार है लिहाजा वो संसाधनों की कमी का रोना नहीं रोएगी. प्रधानमंत्री मोदी अपनी चुनावी रैलियों में बहुत लुभावनी और भारी भरकम घोषणाएं और वादे कर गए हैं. स्थानीय नेतृत्व पर इसकी जिम्मेदारी रहेगी कि वो उन वादों को अमलीजामा पहनाने के लिए कमर कसे. दिक्कतें होंगी तो वे अफसरशाही और भ्रष्टाचार की हो सकती हैं. वो जनता से दूर बने रहने की हो सकती हैं.

अगर आज पहाड़ों में पलायन एक बड़ी समस्या है, खेती चौपट है, उद्योग धंधे नहीं हैं तो मैदानी इलाकों पर भी न सिर्फ आबादी का बोझ बढ़ा है बल्कि बेरोजगारी की दर भी बढ़ी है. स्कूल, अस्पताल, सड़कें बदहाल हैं. और मानव संसाधन की भी कमी है. और सबसे बढ़कर सरकारों, राजनैतिक दलों और नौकरशाही का कोई सीधा संपर्क राज्य के आम जन के सरोकारों से नहीं बन पाया है. ये ऐसी चुनौतियां हैं जो आगे राज्य और आगामी सरकार के सामने हैं. जमीनी स्तर पर काम दिखेंगे तभी बदलाव की सार्थकता मानी जाएगी वरना तो चुनाव की इस लोकतांत्रिक परंपरा को आयाराम गयाराम की राजनीति बन कर रह जाना है.