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नौकर हैं, नौकरी नहीं

१५ जून २०१३

भारत में लगभग नौ करोड़ लोग घर में नौकर का काम करते हैं. इन्हें किसी तरह की मान्यता नहीं मिली है और न ही इनके काम का कोई सम्मान करता है. इस वजह से इनके खिलाफ अत्याचार को भी गंभीरता से नहीं लिया जाता.

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तस्वीर: Getty Images

58 साल की कावेरी अम्माल दक्षिण चेन्नई के बेसंट नगर में काम करने जाती हैं. उनका जीवन मुश्किलों से भरा है. रोज वे 15 किलोमीटर का सफर करती हैं और बेसंट नगर के अलग अलग घरों में सफाई करती हैं. महीने में वे करीब 2,500 रुपये कमा लेती हैं. कपड़े धोने के साथ साथ, झाड़ू-पोछा और इस्तरी करना उनका काम है. दो घरों में काम के बीच अगर उन्हें खाली वक्त मिलता है तो वह मंदिर में जाकर सो जाती हैं या अपनी बेटी से मिलती हैं, जो पास में रहती है.

अत्याचार से पीड़ित

चौका-बर्तन करने और खाना पकाने के अलावा कावेरी को अकसर अपने मालिकों का गुस्सा भी झेलना पड़ता है. दिन अच्छा हो तो बस डांट पड़ती है, लेकिन एक बार तो कावेरी को बिना पानी या खाना के एक अंधेरे कमरे में बंद कर दिया गया. कावेरी की मालकिन ने उन्हें बर्तन साफ करने से पहले पोछा करने को कहा. सूखे बर्तनों पर जब कावेरी ने पानी छिड़का, तो मालकिन बुरा मान गईं और कावेरी को थप्पड़ मारा. मालिकन के छोटे बेटे ने फिर कावेरी को छूरी दिखाई, लेकिन फिर उसे अंधेरे कमरे में बंद कर दिया. पड़ोसियों ने कावेरी की चीख सुनी और कामवालों के एक हेल्पलाइन पर फोन किया.

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कावेरी की कहानी भारत में घर का काम करने वाले बहुत से नौकरों के लिए आम है. हिंसा और यौन शोषण इनके लिए रोजमर्रा की बात है. डॉयचे वेले के साथ बातचीत में चेन्नई के सेंटर फॉर विमेंस डिवेलपमेंट रिसर्च सीडब्ल्यूडीआर की केआर रेणुका कहती हैं कि उनका संगठन कई ऐसे मामलों से निबटता रहता है. कावेरी का मामला उन्हें याद है, "यह मामला गंभीर था क्योंकि हमें पुलिस में रिपोर्ट करनी पड़ी. कामवाली को छोड़ने के बाद उसकी मालकिन ने यह बात मानी कि वह तनाव में थीं और तनाव अपनी कामवाली पर निकाला." सीडब्ल्यूडीआर के कार्यकर्ताओं ने फिर कावेरी को बंद करने के आरोप में उसकी मालकिन के खिलाफ एक रिपोर्ट दर्ज की.

घर की सफाई भी काम है

भारत में घरों की सफाई कर रहे नौकरों के लिए सीडब्ल्यूडीआर जैसे संगठन अच्छा साबित हो रहे हैं. रेणुका का संगठन इन्हें ट्रेनिंग देता है, उन्हें सिखाता है कि वह अपने काम के प्रति सम्मान कैसे पैदा कर सकते हैं और अपने मालिकों द्वारा शोषण से कैसे बच सकते हैं. हालांकि केआर रेणुका कहती हैं कि घर को काम की जगह के तौर पर और नौकर के काम को नौकरी के तौर पर कानूनी मान्यता देना मुश्किल है. कानूनी मान्यता के न होने का मतलब है कि मालिक मनमर्जी वेतन दे सकते हैं और नौकरों के पास कोई अधिकार नहीं होते. वे शिकायत भी नहीं कर सकते.

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तस्वीर: Getty Images

सीडब्ल्यूडीआर की मुहिम मानुषी को औपचारिक तौर पर ट्रेड यूनियन साबित करना भी एक बड़ी चुनौती है. अगर घर को काम की जगह बताया जा सके तो दफ्तर पर लागू सारे कानूनों को कामवालों के लिए लागू किया जा सकता है. रेणुका कहती हैं, "एक घरेलू महिला के तौर पर मेरा घर मेरा दफ्तर है, अगर इस बात को साबित किया जा सके, तो हालात बदले जा सकेंगे."

मानुषी कामवालों के लिए रैलियों का आयोजन करती है ताकि समाज भी इस तरह के काम को मान्यता दे. इससे घर पर रहकर काम कर रही महिलाओं के प्रति भी सम्मान बढ़ गया है. रेणुका कहती हैं कि तमिलनाडु की सरकार ने पहले तो घरों को दफ्तर में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कानून में शामिल नहीं किया. लेकिन कई अर्जियों और रैलियों के बाद सरकार भी घर को दफ्तर के तौर पर मान्यता दे रही है. मानुषी की मदद से सफाई कर्मचारी तमिलनाडु डोमेस्टिक वर्कर्स वेल्फेयर बोर्ड के सदस्य बन सकते हैं.

कब मिलेगी मान्यता

रेणुका के मुहिम से तमिल नाडु के 25 लाख कामवालों को फायदा हुआ है लेकिन भारत के बाकी शहरों में इनकी हालत अब भी खराब है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक भारत में करीब नौ करोड़ लोग घर पर सफाई करते हैं. लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे एनएसएस के आंकड़ों के मुताबिक करीब चार लाख 75 हजार लोग घरों में सफाई का काम करते हैं. इनमें से 71 प्रतिशत महिलाएं हैं. इस सेक्टर में सबसे ज्यादा महिलाएं काम करती हैं.

पिछले साल बनी फिल्म डेल्ही इन ए डे में निर्देशक प्रसांत नायर दिल्ली के अलग अलग घरों में काम कर रहे कर्मचारियों की कहानी बताते हैं. इनमें कई ऐसे मामलों की चर्चा की गई है जिसमें मालिक अपने नौकरों को घर में बंद कर देते हैं और खुद छुट्टियां मनाने चले जाते हैं. भारत के नौकर मजदूरों की एक ऐसी श्रेणी हैं जिन्हें अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं माना जाता. इस वजह से उन्हें मान्यता नहीं मिलती और वे मानवाधिकारों से भी वंचित रहते हैं.

रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः महेश झा

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