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"नॉर्थ ईस्ट" पर सोच बदलनी होगी

ईशा भाटिया१७ अक्टूबर २०१४

एक बार फिर भारत के पूर्वोत्तर के रहने वाले सुर्खियों में हैं. एक बार फिर न्यूज चैनलों को नया मुद्दा मिला है. एक बार फिर सोशल मीडिया में बहस छिड़ी है. लेकिन क्या इस बहस से वाकई कोई हल निकलेगा?

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

पिछले दो दिनों में पूर्वोत्तर के लोगों को लेकर दो घटनाएं हुई हैं. दिल्ली के मुनिरका इलाके में मीजोरम की एक लड़की अपने कमेरे में मृत पाई गई और एक दिन पहले नागालैंड के दो युवकों को गुड़गांव में पीटा गया. इससे कुछ ही दिन पहले मणिपुर के एक स्टूडेंट पर बैंगलोर में हमला हुआ. उस वक्त कहा गया कि कर्नाटक में हो, तो कन्नड़ में बात करो, यह भारत है, चीन नहीं. इस बार कहा गया कि जिंदा छोड़ रहे हैं ताकि "नॉर्थ ईस्ट" वालों को जाकर बता सको कि यहां से चले जाएं.

"नॉर्थ ईस्ट" का इस्तेमाल ऐसे किया जाता है जैसे नेपाल और भूटान के बाद कोई पड़ोसी देश हो. स्कूल में सिखाया तो जाता है कि देश के पूर्वोत्तर हिस्से में सात राज्य हैं. उनके नाम, उनकी राजधानियां, सब याद कराई जाती हैं. लेकिन अगर सड़क पर जाकर लोगों से पूछा जाए कि "नॉर्थ ईस्ट" में कौन कौन से राज्य हैं, तो ज्यादातर दो या तीन ही नाम बता पाएंगे. और शायद उन्हें ये नाम सिर्फ इसलिए याद होंगे क्योंकि हाल फिलहाल में उन्होंने खबरों में इन राज्यों के लोगों के साथ बदसलूकी के बारे में सुना.

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तस्वीर: DW/P. Henriksen

ताजा मामलों की रिपोर्टिंग में तो कुछ न्यूज चैनलों ने भी पीड़ितों के राज्यों के नाम गलत बताए. मणिपुर हो या नागालैंड, क्या फर्क पड़ता है? आखिर है तो "नॉर्थ ईस्ट" ही! हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन में भी इसी मुद्दे को उठाया गया. कोहिमा शहर नेपाल, भूटान या चीन का नहीं, भारत का ही हिस्सा है, यह बात "जानते तो सब हैं, पर मानते कितने हैं," यह सवाल पूछ कर केबीसी ने लोगों को अपने अंदर झांकने को कहा है.

आदतों का हिस्सा है भेदभाव

भारत में दो हजार से ज्यादा जातीय समूह हैं और यहां नस्लभेद आदतों का हिस्सा बना हुआ है. स्कूलों में बच्चे भले ही एक जैसी यूनिफॉर्म पहनकर एक साथ पढ़ते हों, पर उन्हें यह फर्क जरूर पता होता है कि उनका कौन सा दोस्त बनिया है, कौन सा पंजाबी और कौन सा मराठी. इसी तरह गोरेपन का दीवाना भारत नस्लभेद के साथ रंगभेद भी करता है. इतनी सुंदर लड़की है, दूध जैसी "गोरी." धूप में मत जाओ, "काली" हो जाओगी. क्या इस तरह की बातें आदतों का हिस्सा नहीं हैं? और क्या इन्हें बदलना जरूरी नहीं है?

"नॉर्थ ईस्ट" की लड़कियों को "चिंकी" कह कर पुकारना, उन्हें देह व्यापार से जोड़ कर देखना, क्या यह भी सोच का हिस्सा नहीं है? इसी तरह अफ्रीका से आए लोगों को अजीब सी नजरों से देखना, उन्हें "ड्रग स्मगलर" कहना, गलत सोच और गलत आदत नहीं है?

कुछ दिनों पहले जब दिल्ली मेट्रो में तीन अफ्रीकी छात्रों को पीटा गया तो यह सोच एक बार फिर सामने आई. कहा गया कि उन्होंने एक महिला के साथ छेड़ छाड़ की थी, इसलिए वे लोगों के गुस्से का शिकार हो गए. लोगों का इस तरह का गुस्सा तब देखने को क्यों नहीं मिलता जब उन्हीं की नस्ल का व्यक्ति किसी महिला के साथ बदतमीजी करता है? पांच मिनट के वीडियो में भीड़ के चेहरों पर गुस्सा कम और उत्साह ज्यादा दिखता है, जैसे टीवी पर कुश्ती का खेल दिखाया जा रहा है. और जब जीत पक्की हो गई, तो सीना चौड़ा कर "वंदे मातरम" और "भारत माता की जय" के नारे भी लगाए गए. क्या भारत माता के लिए गांधीजी ने अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ाया था? वे खुद नस्लभेद का शिकार हुए थे लेकिन उन्होंने लोगों को पीटने और गाली देने का रास्ता नहीं चुना था.

दिल्ली में कोई अफ्रीकी हो, बैंगलोर में "नॉर्थ ईस्ट" वाला या फिर महाराष्ट्र में बिहारी, जरूरत पूर्वाग्रहों को त्यागने की है. इसमें फिल्में भी भूमिका निभा रही हैं. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि फिल्मों से लोगों ने मोमबत्ती हाथ में ले कर मोर्चे निकालना तो सीख लिया है, पर अपनी सोच बदलना नहीं. और जब तक ऐसा ही रहेगा, तब तक एक बार फिर किसी को पीटा जाएगा, एक बार फिर कैंडल लाइट मार्च होगा, एक बार फिर ट्विटर पर नए हैशटैग ट्रेंड करेंगे, एक बार फिर टीवी और सोशल मीडिया में बहस छिड़ेगी, लेकिन सोच- वह नहीं बदलेगी!

ब्लॉग: ईशा भाटिया