निशाने पर पाकिस्तान का उच्च वर्ग
२० जनवरी २०१६पाकिस्तानी यूनिवर्सिटी पर तालिबान का हमला मनहूस यादें उकेरता है. पेशावर के स्कूल में हुए नरमेध को एक साल ही हुआ है, इस हमले की जगह से सिर्फ 50 किलोमीटर दूर थी वह जगह. उस हमले में 150 बच्चे और टीचर मारे गए थे, इस हमले में कुछ कम है. लेकिन यह संतोष की बात नहीं हो सकती. दोनों आंकड़ों में तुलना न सिर्फ पागलपन है, हकीकत से भी परे है. महत्वपूर्ण यह बात है कि फिर से पाकिस्तान का कुलीन वर्ग उग्रपंथियों के निशाने पर है. एक बार फिर मरने वाले सैनिकों, राजनीतिज्ञों, कारोबारियों और बुद्धिजीवियों के बच्चे हैं.
चरमपंथियों को पता है कि उच्च वर्ग पर हमले से ही प्रतिक्रिया की उम्मीद की जा सकती है. बाजार में, चेकप्वाइंट पर या पेट्रोलिंग करते सुरक्षाकर्मियों पर हमले पर अफसोस जरूर व्यक्त किया जाता है, लेकिन अहम लोगों पर उसका असर ज्यादा नहीं होता. हमलावर क्या चाहते हैं, उस पर अटकलें लग रही हैं, लेकिन उसका नवाज शरीफ सरकार की इस पहल से हो सकता है कि वह इलाके में शांति दूत की भूमिका निभाना चाहती है.
पाकिस्तान, अफगानिस्तान, अमेरिका और चीन के बीच बातचीत में इस समय तालिबान को स्थायी शांति के लिए राजी करवाने की संभावना खोजी जा रही है. और नवाज शरीफ अभी अभी सऊदी अरब और ईरान के दौरे से लौटे हैं जहां उन्होंने सुन्नी और शिया सरकारों के बीच मध्यस्थता की कोशिश की है. यह बात बहुत से लोगों को चुभ सकती है और ताजा हमला इन प्रयासों के खिलाफ धमकी हो सकती है. पाकिस्तान और भारत के बीच नजदीकी के प्रयासों को भी पठानकोट के सैनिक अड्डे पर हमला कर बाधित करने की कोशिश की गई है.
एक साल पहले पेशावर स्कूल पर उग्रपंथियों के हमले का उलटा असर हुआ था. पाकिस्तान समाज में हमले पर भारी गुस्सा था. सेना को कबायली इलाकों में तालिबान को नेस्तनाबूद करने के एक बड़े अभियान पर भेजा गया और मौत की सजा फिर से बहाल कर दी गई. इन कदमों की कामयाबी संदेहास्पद है, जैसा कि तालिबान का नया हमला दिखाता है. आतंकवाद के खिलाफ अभियान उनके गढ़ों के बगल से गुजर गया है. अभी भी आतंकवाद को पनाह देने वाले मदरसा बेरोकटोक काम कर रहे हैं और बच्चों को जिहादी बना रहे हैं. इसी तरह आतंकवादी गतिविधियों को विदेशों से मिलने वाली मदद को भी कभी ठीक से रोका नहीं गया है. और बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई को सही रास्ते पर लाने की भी किसी की हिम्मत नहीं दिखती जिसपर पूरे इलाके में इस्लामी कट्टरपंथ को शह देने का आरोप है.
जरूरत है, एक व्यापक और स्पष्टवादी सामाजिक प्रतिरोध की, देश के उच्च वर्ग की ओर से भी, जो दूसरी बार चरमपंथियों के निशाने पर आए हैं. वे निजी तौर पर तो उपमहाद्वीप की सैकड़ों साल की परंपरा वाले उदारवादी इस्लाम का पालन करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से उसके बारे में कभी नहीं बोलते. ईशनिंदा कानून की चपेट में आने और समाज में दमन का शिकार होने का डर बहुत बड़ा है. लेकिन चरमपंथ की जड़ों के बारे में खुली सामाजिक बहस के बिना आतंकवाद को खत्म करना नामुमकिन होगा.
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