दुनिया भर की कक्षाएं
बच्चे राष्ट्र का भविष्य होते हैं, यह एक सर्वमान्य तथ्य है. बेहतर प्राथमिक शिक्षा तय करती है कि देश की प्रगति कैसी होगी. एक नजर दुनिया भर के प्राथमिक स्कूलों की कक्षाओं पर.
स्कूल का अर्थ
दुनिया भर में छात्र कैसे सीखते हैं? हर जगज टीचर ब्लैकबोर्ड पर चॉक से लिखते हैं, लेकिन इसके बावजूद कक्षाओं में अंतर दिखता है. कुछ जगह नन्हे छात्र बाहर कामचलाऊ बेंचों पर बैठते हैं, तो कहीं जमीन पर पद्मासन की मुद्रा में और कहीं लैपटॉप के सामने.
डिजिटल टेक्स्टबुक
दक्षिण कोरिया की शिक्षा प्रणाली में डिजिटल मीडिया का अत्यधिक चलन है. हर कक्षा में कंप्यूटर और इंटरनेट मौजूद होता है. सरकार किताबों की जगह ई-बुक्स इस्तेमाल करना चाहती है. इसे बढ़ावा देने के लिए गरीब से गरीब परिवार को भी टेबलेट पर्सनल कंप्यूटर मुफ्त दिये जा रहे हैं.
देहाती इलाकों को नुकसान
किताबों और चार्टों को डिजिटलाइज किया जा सकता है लेकिन सीखने का तरीका मानव स्वभाव का हिस्सा है और इसे डिजिटलाइज नहीं किया जा सकता. छह साल तक स्कूली पढ़ाई मुफ्त करने के बाद घाना में अब सारक्षता का स्तर काफी ऊंचा हो चुका है. वैसे तो वहां स्कूल की पढ़ाई नौ साल की है, लेकिन देहाती इलाकों के स्कूली बच्चे पढ़ाई के बावजूद आधिकारिक भाषा अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं.
मुश्किल शुरूआत
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर प्राथमिक शिक्षा की अनदेखी के आरोप लगते हैं, लेकिन आरोप लगाने वाले भी जानते हैं कि हालात आज भी बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं. ग्रामीण इलाकों में प्राइमरी स्कूलों की दशा दयनीय है, ज्यादातर स्कूलों में शौचालय तक नहीं हैं. कई इलाकों में एक से पांचवीं कक्षा तक के छात्रों के लिए सिर्फ एक या दो शिक्षक मौजूद रहते हैं.
टचपैड पर लिखने की सीख
जर्मनी के इस स्कूल में नन्हे बच्चे पेंसिल से कॉपी पर लिखना नहीं सीखते. यहां लिखने के लिए स्मार्टबोर्ड का इस्तेमाल किया जाता है. कोशिश है कि बच्चे तकनीक के साथ घुलें मिलें.
औद्योगिक देशों में प्राथमिक शिक्षा
औद्योगिक देशों में स्कूल का मतलब प्राथमिक शिक्षा से कहीं ज्यादा है. अमेरिका के आयोवा में ये चार साल के बच्चे अपने टीचर को ध्यान से सुन रहे हैं. औद्योगिक देशों में 70 फीसदी बच्चे प्राथमिक स्कूल से पहले किंडरगार्डेन में कुछ कुछ सीखना शुरू कर देते हैं. कम आय वाले देशों में 20 में से सिर्फ तीन ही बच्चों को ऐसी सुविधा मिल पाती है.
पैसे की कमी का असर
केन्या में सभी बच्चों के लिए आठ साल की स्कूली शिक्षा नि:शुल्क है. लेकिन इसके बावजूद सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते. कई अभिभावकों के लिए स्कूल की पोशाक, जूते, किताबें, कॉपिया और पेन जुटाना मुश्किल होता है. सरकारी स्कूलों में भारी भीड़ के बावजूद पढ़ाई लिखाई के लिए अच्छा माहौल नहीं है. ठीक ठाक कमाई वाले लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं.
पढ़ाई स्कूल की यूनिफॉर्म में
इंग्लैंड में ज्यादातर बच्चे यूनिफॉर्म में स्कूल जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि यूनिफॉर्म के जरिए बच्चे खुद को स्कूल की पहचान से जोड़ पाते हैं और बेहतर ढंग से सीखते हैं. लेकिन विकास करते देशों में जो लोग अपने बच्चों के लिए यूनिफॉर्म नहीं खरीद सकते, वो सरकारी मदद की आस में रहते हैं.
खुले में कक्षा
स्कूल तो बच्चे तब जाएंगे जब स्कूल होगा. पाकिस्तान के कुछ इलाकों में बच्चों को सार्वजनिक पार्कों में पढ़ाया जाता है. पाकिस्तान ने शिक्षा पर खर्च घटाया है. देश शिक्षा के बजाए सेना पर ज्यादा खर्च करता है.
आधारभूत शिक्षा के लिए संघर्ष
अफगानिस्तान की आबादी का अच्छा खासा हिस्सा बिना किसी शिक्षा के बड़ा हुआ है. देश में तालिबान के शासन के दौरान छिड़े गृह युद्ध के चलते ऐसा हुआ. अफगानिस्तान की सिर्फ 25 फीसदी महिलाएं ही साक्षर हैं. पुरुषों में सारक्षता 52 फीसदी है. देश में अब भी पर्याप्त स्कूल, शिक्षक और सामग्री का अभाव है.
पिछड़ती बेटियां
ऐसे ही हालात दक्षिण सूडान में भी हैं, जहां सिर्फ 16 फीसदी महिलाएं साक्षर हैं. विदेशी मदद संगठन यहां लड़कियों को शिक्षित करने पर जोर दे रहे हैं. लंबे गृह युद्ध का असर यहां के स्कूलों पर पड़ा है. कुछ ही स्कूल सुरक्षित बचे हैं और उनमें भी फर्नीचर का अभाव है. किताबें भी आधे स्कूलों के पास हैं.
विशाल अंतर
ब्राजील के दूर दराज के इलाकों के स्कूल भी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. ब्राजील को तेजी से औद्योगिक होता देश कहा जाता है लेकिन इसके बावजूद वहां अमीर और गरीब का फासला फैलता जा रहा है. पूर्वोत्तर ब्राजील में खेती करने वाले आज भी बेहद गरीबी में जी रहे हैं.