दिल्ली में लोकतंत्र की परीक्षा
१७ जनवरी २०१५दिल्ली में मुख्य मुकाबला बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच है. वोट सात फरवरी को डाले जाने हैं. आने वाले दिनों में माहौल में गर्माहट जरूर भरेगी क्योंकि देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने के बाद यह मुकाबला बेहद दिलचस्प हो गया है.
अन्ना हजारे ने 2011 में जब केंद्र की यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन शुरू किया तो वह जनांदोलन में बदल गया. भारत की हताश और निराश जनता उसमें कई उम्मीदें खोजने लगी. मजबूत लोकपाल की मांग की गई. आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, अनुपम खेर, ओम पुरी, प्रशांत भूषण और आमिर खान जैसी कई बड़ी हस्तियां अन्ना के साथ खड़ी नजर आई. देश में बदलाव की बयार बह रही थी.
केंद्र सरकार के वादों पर भरोसा कर गांधीवादी समाजवादी अन्ना हजारे से अनशन खत्म कर दिया. अन्ना को लगा कि मजबूत लोकपाल आएगा. यह मांग आज तक पूरी नहीं हुई. अनशन के दौरान तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल बार बार भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं को राजनीति में आने की चुनौती देते रहे. इस चुनौती का जवाब आंदोलन खत्म होने के बाद अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण जैसे लोगों ने अपनी राजनैतिक पार्टी बनाकर दिया. पार्टी को नाम दिया आम आदमी पार्टी.
आलोचक कहने लगे कि अरविंद केजरीवाल और उनके कुछ साथी सत्ता के भूखे हैं. वहीं पार्टी के प्रशंसक कहने लगे कि राजनीति में आने की चुनौती दी थी तो अब आरोप क्यों लगाते हो. भ्रष्टाचार से त्रस्त जनमानस ने नई राजनीतिक पार्टी पर भरोसा किया. 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनावों में नई नवेली पार्टी को 28 सीटें मिली, लेकिन विधान सभा में उसे बहुमत नहीं मिला.
32 सीटों के बावजूद बीजेपी ने दिल्ली में सरकार नहीं बनाई. कांग्रेस के सहारे से आम आदमी पार्टी की अल्पमत सरकार बनी. मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल. यहीं से आप का असली इम्तिहान शुरू हुआ. सब पर आरोप लगाने वाले मुख्यमंत्री केजरीवाल पर अब खुद भी आरोप लगने लगे कि वे समस्याएं सुलझाने के बजाए सत्ता भंवर में फंस रहे हैं. वक्त बीतने के साथ ऐसा संदेश निकलने लगा जैसे मुख्यमंत्री आरोप लगाने के अलावा कुछ नहीं कर पाते.
दिल्ली में बीजेपी की कमजोरी यह थी कि उसके पास आम आदमी पार्टी के खिलाफ कोई प्रभावी नेता नहीं था. ऊपर से आम आदमी पार्टी ने खुद ही जगदीश मुखी को बीजेपी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर विरोधी पार्टी के हाथ पैर फुला दिए. बीजेपी आरोपों और कुशल प्रचार का मुकाबला नहीं कर पा रही थी. बीजेपी के विजेंदर गुप्ता और विजय गोयल जैसे हल्के नेता आप की आंधी में दूर पटखे जा चुके थे.
अब किरण बेदी के मैदान में आने से दोनों पार्टियों के नेतृत्व का संतुलन बराबरी पर है. एक तरफ किरण बेदी हैं जिनकी छवि सुधारवादी ईमानदार अफसर की हैं तो दूसरी तरफ केजरीवाल. दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा और कानून व्यवस्था एक बड़ा मुद्दा है. जाहिर है किरण बेदी इन मामलों में केजरीवाल पर भारी पड़ती हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में दोनों अन्ना के साथ रहे, ऐसे में फायदा दोनों तरफ बंटेगा. लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी के कुछ नेताओं की तरफ से दिए गए कट्टरपंथी बयान धार्मिक राजनीति से दूर रहने वाली दिल्ली पर क्या असर करेंगे, यह देखने वाली बात होगी.
इन समीकरणों के बीच अब केजरीवाल के सामने चुनौती ये साबित करने की है कि वो खुद समस्या बनने के बजाए समस्याएं सुलझाएंगे. बीते दो दशकों में दिल्ली की राजनीति ने देश की चुनावी तस्वीर तय की है. दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ऐसी नेता रह चुकी हैं जिन्होंने विधानसभा के चुनावों में विकास को मुद्दा बनाया. यही गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया. उन्होंने भी राज्य के विकास को राष्ट्रीय विकास का मुद्दा बना दिया.
इन चुनावों में ईमानदारी और स्वच्छ शासन का दावा करने वाले दो नेता आमने सामने हैं. अब दिल्ली को चुनाव करना है. जनता और लोकतंत्र के लिए फिलहाल इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है.
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी
संपादन: महेश झा