जर्मनी के बेघर
७ जुलाई २०१४दस साल से टॉर्स्टन माइनर्स के पास कोई घर नहीं है. वह खंडहरों, इमरजेंसी हाउस या फिर सड़कों पर रहते हैं, वो भी जर्मनी के अमीर शहरों में से एक हैम्बर्ग के बीचों बीच. नियमित नौकरी और घर से उनका नाता बहुत तेजी से टूटा. दस साल पहले अचानक वह घर का किराया देने में असमर्थ हो गए. जुए की लत ने उन्हें कर्जदार बना दिया. इस अवसाद से वह बुरी तरह टूट गए. वह बताते हैं, "अवसाद और बेघर होने के शुरुआती दौर में मैं एक पार्क में सोता था." पास के पेट्रोल पंप में वो टॉयलेट की सफाई करते और बदले में उन्हें खाना मिल जाता. खाली बोतलों के बदले में उन्हें थोड़े और पैसे मिल जाते.
बंटा हुआ समाज
वैसे तो जर्मनी में बेघर और गरीबों को होना ही नहीं चाहिए. जर्मनी में अर्थव्यवस्था शोध संस्थान के आंकड़ों के मुताबिक 2012 में निजी घरों की कुल संपत्ति 6.3 अरब यूरो थी, यानि प्रति व्यक्ति करीब 83,000 यूरो. लेकिन इसी शोध में यह भी कहा गया कि संपत्ति का वितरण जर्मनी में बहुत असमान है. बेघरों के लिए काम करने वाली संस्था बीएजी के मुताबिक पिछले सालों में बेघरों की संख्या तेजी से बढ़ी है. 2012 में करीब दो लाख 84 हजार लोगों के पास कोई घर नहीं था. आशंका है कि 2016 तक यह संख्या बढ़कर करीब तीन लाख 80 हजार हो जाएगी.
हैम्बर्ग सेंट पाउली नाम के मशहूर इलाके में बेघरों को रोकने के लिए एक बाड़ लगा दी गई है ताकि वे शहर में नहीं आएं. कोलोन यूनिवर्सिटी में गरीबी पर शोध करने वाले क्रिस्टोफ बुटरवेगे कहते हैं कि शहर के ट्रेन स्टेशन व्यावसायिक बन रहे हैं. इनके आस पास दुकानें बनाई जा रही हैं, "इनका ठेका निजी कंपनियों को दिया जाता है. जो गरीबों और बेघरों के लिए कोई जगह नहीं रखते कि वो किसी कोने में कहीं सो जाएं."
गरीबी नहीं गरीबों से संघर्ष
मुश्किल तब शुरू हुई जब दुकानों के बाहर रात को पानी की बौछारें की जाने लगीं. अगर कोई वहां सो गया हो, तो वो पूरी तरह गीला हो सकता है. मुन्स्टर के फैशन हाउस के बाहर इस तरह की व्यवस्था की गई है. हैम्बर्ग में भारी विरोध के बाद ये व्यवस्था बंद कर दी हई. लंदन में तो बड़ी दुकानों के बाहर मेटल के कांटे लगा दिए गए ताकि कोई वहां सो नहीं सके.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ इन लोगों को दबाया ही जा रहा हो. एक उम्मीद की किरण भी है. हैम्बर्ग के व्यावसाइयों और कारोबारियों ने बेघर लोगों के लिए लॉकर और नहाने के लिए जगह बना दी है.
हालांकि सरकारी नीतियों को भी थोड़ा बदले जाने की जरूरत है ताकि इन बेघर लोगों की मदद हो सके.
रिपोर्टः मार्कुस लुटिके/एएम
संपादनः ईशा भाटिया