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तालिबान पर बदल रहा है भारत का रुख

मारिया जॉन सांचेज
९ नवम्बर २०१८

मॉस्को में हो रही अफगानिस्तान वार्ता में भारत अनौपचारिक रूप से ही उपस्थित है, लेकिन इस अनौपचारिक उपस्थिति का भी बहुत भारी महत्त्व है. क्योंकि अब तक भारत ने तालिबान के साथ किसी भी तरह के संपर्क से परहेज किया है.

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Afghanistan Konferenz in Moskau Lawrow
तस्वीर: Reuters/S. Karpukhin

भारत अब तक "बुरे तालिबान-अच्छे तालिबान" के वर्गीकरण को अस्वीकार करता रहा है. रूस मॉस्को वार्ता का आयोजक है और इसमें पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, चीन, ईरान, छह पूर्व सोवियत गणराज्य और अमेरिका के अलावा तालिबान का एक पांच-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल भाग ले रहा है. अमेरिका की ओर से उसके मॉस्को-स्थित दूतावास का एक अधिकारी वार्ता में शिरकत कर रहा है. जाहिर है कि अमेरिका इस वार्ता से खुश नहीं है क्योंकि यह उसकी घोषित नीति से मेल नहीं खाती और इसमें उसकी भूमिका भी हाशिए पर ही है.

राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते खराब ही होते गए हैं जिसके नतीजे में पाकिस्तान रूस के निकट होता गया है. अफगानिस्तान में शांति स्थापित होना रूस के हित में भी है और उसे अच्छी तरह मालूम है कि पाकिस्तान के सहयोग के बिना अफगानिस्तान में कुछ भी करना संभव नहीं है. अमेरिका पाकिस्तान से कहता रहा है कि वह तालिबान और हक्कानी गिरोह के खिलाफ कार्रवाई करे. साथ ही वह उस पर आतंकवाद को पनाह देने और उसका निर्यात करने का आरोप भी लगाता रहा है. भारत का रुख भी लगभग यही  रहा है. लेकिन इस कारण उसे अफगानिस्तान में शांति बहाल करने की प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं मिल पाई और वह उससे बाहर ही रहा.

अब जैसे-जैसे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अफगानिस्तान में स्थायी राजनीतिक व्यवस्था और शांति स्थापना तालिबान के बिना संभव नहीं है, वैसे-वैसे ही भारत को भी अपनी नीति में परिवर्तन की जरूरत महसूस होने लगी है. अब मॉस्को वार्ता में केवल अनौपचारिक रूप से  उपस्थित होने के बावजूद उसे अपनी आवाज उठाने का मौक़ा मिल गया है. पिछले वर्षों में तालिबान ने अपनी स्थिति मजबूत की है और अफगानिस्तान के काफी बड़े हिस्से में उसका सिक्का चलता है. भारत  अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए जो प्रयास करता रहा है, उन्हें भी तालिबान के हमलों को झेलना पड़ा है. इसलिए यदि उसके साथ किसी किस्म की क्षेत्रीय समझदारी बनती है तो वह भारत के हित में ही होगी.

उधर अमेरिका में भी पुरानी नीति पर पुनर्विचार हो रहा है और मॉस्को वार्ता से ठीक पहले ट्रंप प्रशासन ने अफगानिस्तान में शांति स्थापना के लिए एक विशेष दूत जलमाय ख़लीलजाद की नियुक्ति की है और तालिबान से सीधे-सीधे बात न करने  की नीति को पलटने की तैयारी शुरू कर दी है. इसका अर्थ यह है कि सभी तरफ से अफगानिस्तान में 17 वर्षों से चले आ रहे गृहयुद्ध को समाप्त करने के प्रति गंभीरता प्रदर्शित की जा रही है. ऐसे में मॉस्को में हो रही वार्ता का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है. 

उधर रूस पाकिस्तान को इस्लामिक स्टेट के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है क्योंकि उसकी नजर में वह एक वैश्विक ख़तरा है जबकि तालिबान स्थानीय ख़तरा है. इसके पहले तालिबान केवल अपने-आपको अफगानिस्तान का वैध शासक मानता था और इसीलिए अफगानिस्तान की सरकार के साथ वार्ता की मेज पर बैठने से इंकार करता था. मॉस्को वार्ता का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि इसमें अफगानिस्तान सरकार और तालिबान दोनों के प्रतिनिधि शामिल हैं और सीधे एक-दूसरे के साथ संवाद में हैं. यानी राजनीतिक गतिरोध टूट रहा है और आगे की शांति वार्ता का मार्ग प्रशस्त हो रहा है.

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