डोकलम विवाद को कड़ाके की सर्दी का इंतजार
४ अगस्त २०१७16 जून 2017 से भारत और चीन की सेना आमने सामने हैं. चीन भारत से कह रहा है कि वह चीन और भूटान के विवाद वाले डोकलम इलाके से अपनी सेना वापस हटाए. वहीं भारत का कहना है कि हटना तो चीन की सेना को भी पड़ेगा. करीब दो महीने से जारी यह विवाद अब दोनों देशों के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन चुका है. दोनों तरफ का मीडिया बहुत ही ज्यादा बरगलाने वाली खबरें छाप और दिखा चुका है. अब दोनों देशों के नेताओं पर इस बात का दबाव है कि वह विवाद का शांतिपूर्ण हल भी खोजें और आत्मसम्मान भी बचाएं. जाहिर है, ये आसान नहीं.
मीडिया की डुगडुगी युद्धोन्माद फैला रही है. जुलाई में एक भारतीय न्यूज चैनल का विशेष कार्यक्रम. जानी मानी एंकर कहती हैं, "भारत से अगर एक निरीह देश मदद मांगे तो क्या उसकी मदद न की जाए." निरीह से उनका मतलब भूटान से था. ताकत का ऐसा अंहकार कि मित्र देश को निरीह कहना. कई अन्य न्यूज चैनलों की भाषा ऐसी ही है.
बिल्कुल यही हाल चीनी मीडिया का भी है. ग्लोबल टाइम्स आए दिन कह रहा है कि बस बहुत हुआ, अब भारत को सबक सिखाया जाना चाहिए. 1962 की जंग याद दिलायी जा रही है. मीडिया मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़ रहा है.
इस तरह के हालात के बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तारीफ की जानी चाहिए. दोनों ने अब तक संयम दिखाया है. दोनों नेता जानते हैं कि अगर किसी भी तरफ से अगर एक भी गोली चली, तो विवाद बेकाबू हो जाएगा. दोनों देशों के पास परमाणु बम है. दुनिया की सबसे बड़ी थल सेनाएं हैं.
डोकलम विवाद से चीन ज्यादा दबाव में है. बाकी पड़ोसियों को लाल आंखें दिखाने वाली चीनी सेना के सामने इस एक और मजबूत आर्मी है. दांव पर सिर्फ डोकलम की जमीन ही नहीं बल्कि अरबों डॉलर की आर्थिक तरक्की भी हैं. यह वही आर्थिक विकास है जिसकी बदौलत चीन इतना ताकतवर हुआ है. सशस्त्र संघर्ष की पहली चोट इसी पर पड़ेगी.
इन तमाम पहलुओं के बीच दोनों देश जानते हैं कि यथास्थिति बरकरार रखते हुए भी डोकलम विवाद बर्फ की तरह ठंडा पड़ ही जाएगा. नवंबर से हिमालय के उस ऊंचे इलाके में हालात बर्फीले हो जाएंगे और आमने सामने मौजूद सेनाओं को वापस लौटना पड़ेगा. लेकिन शांति से नवंबर तक पहुंचा कैसे जाए, यह सवाल बना हुआ है.
(भारत चीन का सीमा विवाद)