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डाटा सुरक्षा की चुनौती से जूझता भारत

शिवप्रसाद जोशी
११ जनवरी २०१८

आधार से जुड़ी सूचनाओं के लीक होने की ख़बरों के बीच भारत में डाटा सुरक्षा को लेकर नई बहस खड़ी हो गई है. आधार की संवैधानिकता पर सवाल और निजता के अधिकार के हनन की आशंकाओं के बीच, डिजीटल पारदर्शिता की मांग भी उठने लगी है.

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Indien Aadhar Card biometrische Personen-Indentifizierung
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/R. Shukla

यूनीक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया, यूआईडीएआई का दावा है कि आधार डाटा में सेंधमारी संभव नहीं है और ये उच्चतम स्तर की सुरक्षा प्रणाली से लैस है. उसका ये भी कहना है कि आधार नंबर हासिल हो जाने का अर्थ ये नहीं है कि नागरिक की व्यक्तिगत सूचना भी लीक हो जाएगी, बल्कि इस सूचना का अहम बिंदु बायोमेट्रिक्स से जुड़ा है और उस तक पहुंचना, किसी व्यक्ति या एजेंसी या कंपनी के लिए आसान नहीं. प्राधिकरण के दावे के समांतर ये भी सच है कि डाटा में सेंध के मामले सामने आए हैं और हाल में ट्रिब्यून अखबार की एक रिपोर्ट ने उन आशंकाओं को एक तरह से बल ही दिया है जो डाटा सुरक्षा और नागरिक अधिकार के हनन से जुड़ी हैं. 

आधार को एक एक कर तमाम सार्वजनिक सेवाओं से जोड़ा जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट में लंबित फैसले के समांतर मोबाइल फ़ोन और बैंकिंग सेवाओं को आधार से जोड़ने के लिए डेडलाइन निर्धारित कर दी गई है. आज नया बैंक खाता बिना आधार के नहीं खोला जा सकता है. रेल, हवाई और बस सेवाओं में भी आधार की अनिवार्यता की बात की जा रही है. आलोचकों का कहना है कि फाइलों और हस्ताक्षरों की भूलभुलैया में फंसे नागरिकों को शासन और उसकी अफसरशाही, क्या आधार कार्ड के जरिए एक नयी भूलभुलैया में धकेलना चाहती है या ये उन्हें नियंत्रित करने और उनकी निगरानी करते रहने की सत्ता संस्कृति है जिसका संबंध अपने राजनीतिक फायदों के अलावा बहुराष्ट्रीय वाणिज्य और मुनाफे से भी है.

Indien Aadhar Card biometrische Personen-Indentifizierung
तस्वीर: picture-alliance/dpa/N. Jagadeesh

इसमें संदेह नहीं कि भारत में डाटा सुरक्षा कानून एक मजबूत विधायी ढांचे की अनुपस्थिति में कई समस्याओं से ग्रस्त है. अब जबकि पूरी दुनिया डिजीटल हो चुकी है, ऐसे में डिजीटल सूचनाओं की संप्रभुता को लेकर भी आशंकाएं हैं. साइबर और डिजीटल अपराध आज भूमंडलीय स्तर पर सक्रिय हैं और कोई ऐसी सुरक्षा दीवार या भौगोलिक सीमा नहीं है जो किसी देश को ऐसे अपराधों से बचाए रख सके. आधार भी इसी डिजीटल दुनिया का एक हिस्सा है. ध्यान रहे कि पूरी दुनिया में प्रोसेस हो रहे आउटसोर्स डाटा का सबसे बड़ा होस्ट भारत है, ऐसे में साइबर अपराधों से बचाव अपरिहार्य है. ऐसी आशंकाओं का जवाब किसी राजनीतिक या कानूनी पलटवार या कार्रवाई से नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि इन्हें सुलझाने के प्रामाणिक, विश्वसनीय और संवैधानिक उपाय करने चाहिए. सबसे बड़ी बात है अपने नागरिकों में भरोसा पैदा करना. अनिवार्यता के जोर पर नागरिकों को एक लाइन में हांकने से पहले सोचना चाहिए कि भारत एक संप्रभु लोकतांत्रिक देश है ना कि कोई सर्वसत्तावादी हुकूमत. अनिवार्यता एक निरंकुशता में न तब्दील हो जाए, ये सुनिश्चित करने का काम न सिर्फ कार्यपालिका और विधायिका का है बल्कि न्यायपालिका को भी इस बारे में सचेत रहना होगा.

भारत में आज 46 करोड़ से ज़्यादा इंटरनेट यूजर्स हैं. और वे किसी न किसी रूप में डिजीटल सेवाओं से जुड़े हैं. इंटरनेट पर उनका डाटा किसी न किसी रूप में मौजूद हैं. ये सुनिश्चित करने वाला कोई नहीं है कि वो डाटा किस हद तक सुरक्षित है. निश्चित कानून के अभाव ने स्थिति को और पेचीदा बना दिया है. फेसबुक, गूगल और वॉट्सएप जैसी सेवाएं अपने उपभोक्ताओं को ये भरोसा दिलाती हैं और सेवा लेने की स्वीकृति भी कुछ निर्देशों पर सहमति के बाद देती हैं, फिर भी स्पैम सूचनाओं के मलबे का पहाड़, डिजीटल दुनिया में फैल चुका है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/N. Jagadeesh

कोई भी सूचना तब तक किसी यूजर की अपनी व्यक्तिगत सूचना है जब तक कि वो अपनी इच्छा से उसे अन्य लोगों के साथ शेयर नहीं करता है चाहे वे निजी कंपनियां हो या सरकार का थर्ड पार्टी. एक पहलू ये भी है कि किसी यूजर पर कोई सूचना न तो थोपी जा सकती है न ही उसे कुछ सेवा प्रदान करने की शर्तों के तहत रजामंदी में बांधा जा सकता है. क्या यही रजामंदी यूजर के लिए एक वलनरेबल स्थिति नहीं बनाती? मोबाइल इंटरनेट के विस्तार के बीच एक ठोस कानून की उतनी ही अनिवार्यता है जितना कि आधार की अनिवार्यता को लेकर सरकार की दलीलें.

नागरिकों के मौलिक अधिकारों की हिफाजत करना सरकार का संवैधानिक दायित्व है. अधिकारों को कानूनी पेचीदगियों में उलझाकर हम अविश्वास का ही माहौल सघन करेंगे. किसी नागरिक की आधार सूचना हो या कोई अन्य किस्म की डिजीटल सूचना- उन पर सेंध लगाने की जुर्रत अंततः नागरिक गरिमा ही नहीं, राष्ट्रीय संप्रभुता को भी ठेस पहुंचाएगी. भूमंडलीय डिजीटलीकरण और मुनाफे और निवेश का खुला बाजार, दुनिया को बेशक एक ‘ग्लोबल गांव' कहकर इतराता हो लेकिन निरंतर उपभोग की लपलपाहट से बाहर भी एक जीवंत भूगोल है- जहां नागरिक रहते हैं और वे डिजीटलीकृत नहीं हुए हैं.