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ट्रेड यूनियन और वैश्वीकरण की चुनौतियां

२४ मई २०१४

वैश्वीकरण की वजह से विदेशी निवेश के साथ साथ सस्ती जगह पर काम करवाने की प्रथा भी बढ़ी है. कामगारों के लिए काम की परिस्थितियां नहीं बदली. तुर्की और बांग्लादेश की दुर्घटनाएं दिखाती हैं कि यूनियनों के लिए यह बड़ी चुनौती है.

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तस्वीर: picture alliance/Photoshot

काम की परिस्थितियों में सुधार लाने में ट्रेड यूनियनों की अहम भूमिका होती है. अलग अलग देशों में ट्रेड यूनियन अलग अलग तरह से काम करती हैं. कहीं वे काफी प्रभावशाली हैं, तो कहीं बिलकुल भी नहीं. क्या लोगों के हकों के लिए दुनिया भर की ट्रेड यूनियन मिल कर काम नहीं कर सकती?

बांग्लादेश की सिलाई फैक्ट्री बुरी हालत में थी, फिर भी लोगों को वहां रह कर कपड़े सीने को कहा गया. तुर्की में खनन के खर्च को 80 फीसदी तक कम कर के सरकार ने वाहवाही लूटी. इन दोनों ही मामलों में मुनाफे को लोगों की सुरक्षा से ज्यादा महत्व दिया गया. दोनों ही बार मुनाफे की कीमत लोगों ने अपनी जान दे कर चुकाई.

मानकों की जरूरत

जर्मनी के ट्रेड यूनियन संघ डीजीबी के नए अध्यक्ष राइनर हॉफमन का कहना है कि ये हादसे कोई इत्तेफाक नहीं हैं, "ये दिखाते हैं कि हमें इन देशों में स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़ी सुविधाओं पर काम करने की जरूरत है, ताकि वहां ऐसे मानक बनाए जा सकें जिनसे इस तरह के हादसों पर रोक लगे."

18 से 23 मई तक बर्लिन में अंतरराष्ट्रीय ट्रेड यूनियन संघ की बैठक हुई. कई देशों के श्रमिक नेताओं ने यहां मजदूरों के लिए बेहतर हालात बनाने पर चर्चा की. हॉफमन का कहना है कि जर्मनी में ट्रेड यूनियन का तजुर्बा अच्छा रहा है, वे कंपनियों की नीतियों में जिस तरह दखल देते हैं, उससे अच्छे नतीजे देखने को मिलते हैं. लेकिन सभी देशों में ऐसा नहीं है. बहुत से देशों में यूनियन से जुड़ने पर लोगों को नुकसान उठाना पड़ता है और काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

अमेरिका का उदाहरण देते हुए जर्मन ट्रेड यूनियन नेता हॉफमन कहते हैं, "चैटानूगा में फोल्क्सवागेन एक वर्कर काउंसिल बनाना चाहता था. कंपनी भी इसके पक्ष में थी और ट्रेड यूनियन भी. लेकिन क्योंकि यह अमेरिकी प्रांत टेक्सास के व्यापार कानूनों के प्रतिकूल है, इसलिए यह विचार धरा का धरा रह गया."

बढ़ रहा है फासला

जर्मनी में भी कंपनियां आसानी से ट्रेड यूनियनों को स्वीकार नहीं कर लेती हैं लेकिन कोलोन इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च के हागेन लेश का कहना है कि यहां बाकी देशों की तुलना में वर्कर काउंसिल बनाना काफी आसान है, "अमेरिका में फैक्ट्रियों में आपसी मतभेद होने ही नहीं दिया जाता." इसलिए जर्मनी के मॉडल को आदर्श मान कर उसे हर जगह लागू करने के बारे में नहीं सोचा जा सकता.

ऐसा भी नहीं कि जर्मनी में श्रमिकों को कोई दिक्कत ना हो. हॉफमन बताते हैं कि यहां भी आए दिन बेहतर वेतन और बेहतर सुविधाओं के लिए मतभेद होते रहते हैं. लेकिन यहां ट्रेड यूनियनों को सामाजिक मान्यता मिली हुई है और लोगों को एकजुट करना आसान है.

बर्लिन में हुई चर्चा के दौरान इस बात पर जोर दिया गया कि विकसित और विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में आर्थिक मुनाफे पर दिए जा रहे जोर के कारण अमीरों और गरीबों के बीच का फासला बढ़ता जा रहा है. यही वजह है कि आर्थिक प्रगति के बावजूद गरीबी दर जितनी कम की जा सकती थी, उतना नहीं हो पाया है. जर्मन ट्रेड यूनियन का सुझाव है कि स्कैंडिनेवियाई देशों का उदाहरण ले कर आगे बढ़ा जाए, जहां बहुत ही मजबूत सामाजिक ढांचा है और ट्रेड यूनियन को उनका पूरा समर्थन भी हासिल है.

रिपोर्ट: रॉल्फ वेंकल/आईबी

संपादन: महेश झा