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झारखंड के वॉटरमैन ने सूखे को हराया

एम अंसारी, बेड़ो ब्लॉक, रांची३ जून २०१६

देश की 33 करोड़ आबादी सूखे से प्रभावित हैं. पिछले दो सालों से देश पानी की बेतहाशा किल्लत से जूझ रहा है. लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अपने देसी तौर तरीके से हरित क्रांति कर रहे हैं. बात झारखंड के वॉटरमैन की.

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तस्वीर: DW/M. Ansari

झारखंड की राजधानी रांची से महज 30 किलोमीटर दूर बेड़ो बाजार के रहने वाले साइमन उरांव को लोगों ने तब जाना जब उनके नाम का एलान पद्म श्री सम्मान के लिए हुआ. झारखंड के वॉटरमैन के नाम से मशहूर साइमन उरांव ने बेड़ो बाजार में बढ़े होते हुए यह महसूस किया कि छोटानागपुर इलाके में किसी चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है तो वह सिंचाई के लिए पानी की. 83 साल के इस वॉटरमैन ने अपनी जिंदगी के ज्यादातर वक्त इसी काम में लगा दिया. पानी के संचय और जंगल को बचाने और बनाने में.

बेहद सरल हैं साइमन उरांव

पद्मश्री सम्मान मिलने से पहले शायद ही कोई साइमन उरांव को जानता था. उन्होंने अपने गांव के हजारों लोगों के जीवन में खुशहाली भरी और पानी को लेकर एक जंग छेड़ दी. रांची से करीब 30 किलोमीटर दूर बेड़ो में उन्होंने जो पानी को लेकर अभियान चलाया और जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ी उसके लिए उन्हें सम्मान बहुत पहले दे दिया जाना था. लेकिन उन्हें पर्यावरण संरक्षण के लिए पद्म श्री सम्मान देकर सरकार ने उनके त्याग और इच्छाशक्ति को सलाम किया है. साथ ही देश में पर्यावरण संरक्षण के काम में लगे हजारों लोगों के काम को पहचान दी है.

जंगलों की कटाई और सूखे का संकट

झारखंड के वॉटरमैन या फिर पहाड़ी राजा या फिर बाबा के नाम से मशहूर साइमन उरांव की पद्म श्री तक की कहानी आज से 65 साल पहले शुरू होती है. जब उन्होंने पेड़ों को कटते और जंगल को तबाह होते देखना शुरू किया. जंगल कटने से पर्यावरण को नुकसान होता गया और इलाके में पानी की समस्या पैदा होने लगी. साइमन उस जमाने को याद करते हुए बताते हैं, "जब मैं छोटा था तभी से मैं पेड़ों को कटते देखता और उन पेड़ों को ट्रकों में लादकर आरा मशीन ले जाते मजदूरों को देखता. कुछ साल गुजरने के बाद जब इलाके में जंगल कटाई के कारण फसलों को नुकसान पहुंचा तो मैंने कदम उठाने के बारे में सोचा. मैंने अपने गांव के लोगों को इकट्ठा किया और जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए साथ आने को कहा."

साइमन उरांव बताते हैं कि उन्होंने केवल चौथी कक्षा तक पढ़ाई की लेकिन जंगलों के बीच रहते हुए उन्होंने पर्यावरण को बचाने और उसे बढ़ाने के लिए बहुत कुछ सीखा. वे बारिश के दिनों में पहाड़ों से आती पानी की धार की उल्टी दिशा में चले जाते और वहां पानी के स्रोत को समझते और उसे संचय करने के तरकीब लगाते. उरांव कहते हैं, "उबड़ खाबड़ क्षेत्र में पहाड़ों से गिरता पानी नाली बनाता है, मैंने सोचा क्यों ना तलहटी के पास एक बांध बना लिया जाए और पहाड़ों से गिरते पानी को जमा कर लिया जाए. इस पानी का हम इस्तेमाल सिंचाई और खेती के लिए कर सकते हैं. खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए नहरों का निर्माण किया जाए. और हमने नहरों को बांधों से जोड़ दिया."

मजबूत इरादों का दूसरा नाम साइमन उरांव

1961 में साइमन उरांव ने गांव के लोगों के साथ मिलकर बेड़ो में ही पहला बांध गायघाट में बनाया. यह बांध मिट्टी का था. बारिश में मिट्टी का बांध टिक नहीं पाया और वह ढह गया. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और दोबारा कोशिश की. उनके प्रयास को जल संसाधन विभाग की मदद मिली और वॉटरमैन ने पहली कामयाबी चखी.

बांध बनाने के बाद वॉटरमैन का आत्मविश्वास बढ़ा और गांव के लोगों को खेती के लिए पानी भी मिलने लगा. धीरे धीरे जमीन और जंगल को बचाने के लिए साइमन और लोगों को जोड़ते गए.

हालांकि साइमन को सरकारी मदद नहीं मिलती फिर भी वह अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते चले गए. अब तक साइमन छह बांध, पांच तालाब, कई कुओं और नहरों का निर्माण कर चुके हैं. पानी और जंगल को लेकर साइमन की लगन ने 51 गांवों की तकदीर बदल दी है. देसी तकनीक के इस्तेमाल से इन्होंने खेतों को हरे भरे और नए जंगल को बसाया है.

साइमन बताते हैं कि शुरुआती दिनों में जंगल को बचाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती थी. गांव के लोगों के साथ मिलकर पहरा दिया जाता और पेड़ों को कटने से बचाया जाता. जो लोग पेड़ काटते उन्हें समझाया जाता और उनसे कहा जाता कि पेड़ काटने से पहले कुछ पेड़ जरूर लगाएं. साइमन बताते हैं कि कैसे उन लोगों ने पेड़ काटने पर शुल्क लगा दिया जिससे लोग पेड़ काटने से पहले दस बार सोचते.

साइमन की तरकीब धीरे धीरे असर दिखाने लगी और जल और जंगल में सकारात्मक बदलाव नजर आया. बदलाव के कारण ही गांव वालों के बीच उनकी पहचान बनती गई और उनके काम की सराहना होने लगी. बांध, नहर और तालाबों का इस्तेमाल खेती के लिए होने लगा और गांव के लोगों की जिंदगी में बदलाव होने लगे.

आज की तारीख में साइमन के गांव में किसान हर साल तीन सब्जियां उगाते हैं और इसके अलावा धाने की भी फसल लगाई जाती है. गांव में पैदा होने वाली सब्जी आस पास के इलाकों तक पहुंचाई जाती है. साइमन इसका श्रेय जंगल और पानी को देते हैं.

पद्म श्री सम्मान मिलने के बाद झारखंड में पर्यावरण को लेकर ग्रामीण इलाकों में जागरुकता पैदा हुई है. उरांव बताते हैं कि उन्हें रोजाना दसों फोन कॉल आते हैं और बधाई दी जाती है साथ ही उन्हें गांवों में आकर पर्यावरण संबंधी विचारों को साझा करने अपील की जाती है.

83 साल की उम्र में भी साइमन का जोश और जूनुन वैसा ही है जैसे आज से 50 और 60 साल पहले था. आज भी वह तड़के उठकर जल और जंगल को विकसित करने के बारे में सोचते हैं और उसे अंजाम तक पहुंचाते हैं. साइमन की कहानी यही खत्म नहीं होती. कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के छात्र ने अपने शोध में उनका जिक्र किया है. इसके अलावा उन्हें अंतरराष्ट्रीय सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है.

झारखंड के वॉटरमैन अपनी बात को कुछ इस तरह से खत्म करते हैं, "कोई भी विकास किसानी को अनदेखी करके नहीं किया जा सकता है. आप चाहे कितनी ही फैक्ट्री लगा लें दिन के अंत में आपको दो रोटी ही चाहिए होगी, इसलिए मैं चाहता हूं कि देशभर में किसान और किसानी से जुड़े लोगों को सही पहचान मिले और जल और जंगल को तबाह ना करें, जंगल हैं तो हम हैं."