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जोहरा सहगल: एक सदी की नायिका

१४ जुलाई २०१४

अभिनेत्री जोहरा सहगल दक्षिण एशियाई सांस्कृतिक जीवन की एक धड़कन रही हैं. धड़कन रुक गई लेकिन धरोहर के रूप में वो जिंदा हैं. उनके सौ साल एक स्त्री और एक रंगकर्मी के अथक श्रम के सौ साल हैं.

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तस्वीर: imago/United Archives

साहिबजादी जोहरा बेगम मुमताजउल्लाह खान, ये था पूरा नाम. 14 साल की होते होते जोहरा ने खुद को इस विशाल नाम के दायरे और भूगोल से बड़ा बनाने का फैसला कर लिया था. वो सहारनपुर में पैदा हुईं, बचपन देहरादून में बीता. शुरुआती शिक्षा यहीं हुई. जब कोई सोच भी नहीं सकता था तब 1930 में लंदन को निकलीं और वहीं से होते हुए जर्मनी के ड्रेसडेन में एक मशहूर बैले स्कूल में आधुनिक नृत्य का प्रशिक्षण लेने जा पहुंची. कोई भी जानकर हैरान रह सकता है कि जोहरा सहगल ने अपनी जिंदगी के 80 साल तो नृत्य, थियेटर और अदाकारी में खपा दिए. जोहरा सहगल एक ऐसे काल के संघर्ष का भी प्रतीक हैं जो आज बहुत दूर लगता है, एक ऐसा द्वि-काल जिसमें जिंदगी और कला घुलीमिली हुई थी.

यूरोप में अपने प्रवास के दौरान जोहरा ने प्रसिद्ध बैले नर्तक और सितारवादक पंडित रविशंकर के बड़े भाई उदयशंकर की नृत्य मंडली की प्रस्तुतियां देखीं. मन उसमें डूबा और उदयशंकर से काम देने का वादा लिया. लंदन में रहते ही जापान पहुंचने का टेलीग्राम उदयशंकर से मिला. इस तरह जोहरा सहगल की जिंदगी में नया दौर आया. लौटकर वो अल्मोड़ा पहुंची. 1935 में उदयशंकर की नृत्य मंडली का हिस्सा बनीं. देश दुनिया में इस बैले जोड़ी ने यादगार प्रस्तुतियां दी. वहीं जानेमाने पेंटर और लेखक कमलेश्वर सहगल से मुलाकात हुई, छिटपुट विरोध के बीच शादी की और अभिनय में नए आसमान की तलाश में बंबई चली गईं. वहां जोहरा को गुरू के रूप में पृथ्वीराज कपूर मिल गये. पृथ्वी थियेटर से जुड़कर जोहरा का नया अवतार हुआ.

नृत्य और बैले के संसार से वो अभिनय के संसार में दाखिल हुईं जहां कहा जाता था कि पृथ्वीराज जैसा सिखाने वाला हो तो दुनिया जहान का सबकुछ समझ आ जाता है. पृथ्वी थियेटर के अलावा जोहरा रंगमंच के प्रगतिशील आंदोलन इप्टा से भी जुड़ीं. इप्टा की मदद से बनी चेतन आनंद की ऐतिहासिक फिल्म “नीचा नगर” में अभिनय भी किया. कान फिल्म-महोत्सव का पुरस्कार जीतकर अंतरराष्ट्रीय सिनेमंच पर पहचान पाने वाली ये पहली भारतीय फिल्म थी.

बंबई की ट्रेनिंग के साथ जोहरा ने पति के साथ पाकिस्तान का भी रुख किया लेकिन वहां की सियासी हवाएं दंपत्ति को नागवार लगीं लिहाजा लौट आये. जोहरा करियर तराशने और किस्मत आजमाने फिर बंबई पहुंचीं. पति के इंतकाल के बाद ये एक इम्तहान भी था. वहां कुछ फिल्में, नाटक और टीवी में काम किया. 1962 में फिर लंदन का रुख किया. वहां फिल्म, टीवी और रेडियो में विविधता भरे काम करने के बाद 1990 में दिल्ली लौट आईं और हिंदी सिनेमा की बूढ़ी अम्मा बन गईं. मुख्यधारा के सिनेमा में जोहरा की उपस्थिति रस्म अदायगी नहीं रहीं वो अपने भरपूर कद के साथ वहां मौजूद थीं. दिल से, हम दिल दे चुके सनम, वीर जारा, चीनी कम और सांवरिया जैसी फिल्में इसकी ताकीद करती हैं.

उनके सौ साल पूरे होने के मौके पर उनकी बेटी और ओडिसी नृत्यांगना किरन सहगल ने उनकी जीवनी प्रकाशित की थी, “जोहरा सहगलः फैटी.” फैटी इसलिए कि मां वजन को लेकर बहुत सजग रहती थीं लेकिन वो कम न होता था और बेटी ने मां को फैटी कहकर चिढ़ाया. किरन ने अपनी मां के जीवन संघर्ष को बहुत गहराई और दिली तसल्ली के साथ इस किताब में उकेरा है. एक कलाकार और संस्कृतिकर्मी की निजी और सार्वजनिक जद्दोजहद को समझने का मौका हमें जोहरा की आत्मकथा “क्लोजअप” से भी मिलता है. अपने दो बच्चों के साथ रह गई एक अदाकारा का मनोबल इस किताब से झांकता है. तब भी ये कोई आत्मदया या आत्मविलाप के वृतांत नहीं हैं, इनमें भरपूर उल्लास और जीवट के नजारे हैं. अकेले रह सकने की ताब. जोहरा सहगल कहती थीं कि जिंदगी मुझे डराए इससे पहले मैं उसे डरा दूंगी.

जोहरा के साथ एक लंबे साक्षात्कार के आधार पर अनोखी डॉक्युमेंट्री बना चुके जानेमाने रंगकर्मी एमके रैना मानते हैं कि जोहरा में महासागर जैसी सामर्थ्य थी. उन्हें हफीज जालंधरी की नज्म, “अभी तो मैं जवान हूं” विशेष तौर पर पसंद थी. जोहरा पर उम्र हावी नहीं थी. वो मन से और मिजाज से खुद को लड़की ही मानती थीं. तकलीफ को शिकस्त देने का ये भी एक सलीका ही था. शायद इसीलिए उन्हें सौ साल की बच्ची भी कहा जाता था.

अपनी अदाओं, ठिठोलियों और अल्हड़ताओं में हमें रिझाती रहने वाली इस नायिका को उम्र और वक्त के तकाजों ने कम चोटें नहीं पहुंचाई. एकाध साल पहले की ही तो बात है जब उन्होंने भारत सरकार के संस्कृति और शहरी विकास मंत्रालयों से आर्टिस्ट कोटे के तहत ग्राउंड फ्लोर के आवास की अपील की थी क्योंकि ऊपरी मंजिलों पर चढ़ना उतरना उनके लिए मुमकिन नहीं रह गया था. लेकिन सौ साल पार कर चुकीं जोहरा सहगल की ये मांग ठुकरा दी गई!

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी

संपादन: महेश झा