जेन्टलमैन और दूरदर्शी गुजराल
३० नवम्बर २०१२भारत जिस वक्त अंदरूनी राजनीति में उलझा था और देश में पांच साल सरकार चलाने की मुश्किल हो रही थी, गुजराल ने देश के अंदर की राजनीति के साथ साथ भारत के सबसे मुश्किल पड़ोसी पाकिस्तान को साथ लेकर चलने की कोशिश की. पांच खास बिन्दुओं वाले गुजराल डॉक्ट्रिन में भारत और पड़ोसी मुल्कों के रिश्तों का जिक्र हुआ और पाकिस्तान को अलग से तरजीह दी गई.
दो बार के विदेश मंत्री के तजुर्बे को गुजराल ने प्रधानमंत्री के तौर पर बखूबी इस्तेमाल किया और भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खास जगह पहुंचाया. उनके विदेश मंत्री रहते हुए भारत ने पहली बार पाकिस्तान के लिए वीजा नियम आसान किए, कारोबार को बढ़ावा दिया. उनके डॉक्ट्रीन की वजह से भारत को दक्षिण एशिया में खास जगह मिली. पाकिस्तान के उस वक्त के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ कई बार गुजराल की तारीफ कर चुके हैं.
शानदार अंतरराष्ट्रीय समझ रखने वाले गुजराल का राजनीतिक सफर आजादी के कुछ साल बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ शुरू हुआ. उस वक्त इस पार्टी के सोवियत संघ के साथ करीबी रिश्ते थे और शायद इन्हीं वजहों से उन्हें 1960 के दशक में अफ्रीका और यूरोपीय देशों का विशेष दूत बनाया गया. इन्हें बुल्गारिया जैसे कम्युनिस्ट देश शामिल थे. बाद में उन्होंने यूनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारत लौटे तो सूचना प्रसारण मंत्री का पद मिला.
इमरजेंसी के दौरान जब भारतीय अखबारों पर सेंसर लगाए जा रहे थे, गुजराल ने इसका विरोध किया. संजय गांधी की मर्जी के खिलाफ जाने की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी और पद छोड़ना पड़ा. इसके बाद राजनयिक के तौर पर उन्होंने दूसरी पारी शुरू की और रूस के राजदूत बनाए गए. यह वह दौर था, जब कम्युनिस्ट पार्टी का परचम जोरों से लहरा रहा था और सोवियत संघ अफगानिस्तान में हमले की तैयारी कर रहा था. रूस और सोवियत का पक्का साथी समझा जाने वाला भारत इस मुद्दे पर विरोध में खड़ा हुआ. हंगरी, चेकोस्लोवाकिया और अफगानिस्तान के रूसी पराक्रम का भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विरोध किया, जिसकी सलाह गुजराल ने ही दी थी.
भोले चेहरे और खास गुजराल स्टाइल फ्रेंच कट दाढ़ी वाले ये राजनेता जितने मृदुभाषी थे, उनकी समझ उनकी ही पक्की थी. गुजराल ने इस बात को भांप लिया था कि आने वाले दिनों में भारत की अंतरराष्ट्रीय पहचान बढ़ेगी और उनकी आगे की सोच हमेशा इस तरफ कुछ न कुछ करने की रहती थी. झेलम में 1919 में पैदा हुए गुजराल शानदार उर्दू लिखते और बोलते थे. वह कम बोलते थे लेकिन उनकी अपनी समझ थी. हालांकि खादी के कुर्ते पाजामे और चश्मे लगी आंखों के बीच झांकती उनकी बुद्धिजीवी समझ कम ही लोग समझ पाए. उनकी अपनी सोच हुआ करती थी, जो कई मामलों में दूसरों के पसंद नहीं आती. पर गुजराल इस पर समझौता नहीं किया करते.
मॉस्को से लौटने के बाद गुजराल ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया और 1980 के दशक में जब भारत एक बड़े राजनीतिक बदलाव की ओर बढ़ा तो उन्होंने जनता दल बनाने में भी बड़ी भूमिका निभाई. वीपी सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए विदेश मंत्री का कार्यभार संभाला. हालांकि इस दौरान रूबिया सईद वाले मामले में उन्हें विवाद में आना पड़ा. जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रूबिया को छुड़ाने के लिए भारत ने पहली बार आतंकवादियों को रिहा किया और कई लोगों का कहना है कि इसी वजह से भारत को कंधार हाइजैक मामले में भी बैकफुट पर आना पड़ा.
प्रधानमंत्री बनने के बाद घरेलू राजनीति में उन्हें कई मुश्किल पड़ाव देखने पड़े. एचडी देवेगौड़ा के हटने के बाद 1997 में सरकार स्थिर नहीं हो पाई थी, उन्हें कई पार्टियों के साथ की जरूरत थी. बिहार में चारा घोटाला खुल गया था, जिसकी सीबीआई जांच होनी थी और जो लालू यादव के खिलाफ होनी थी, जो केंद्र सरकार के लिए बेहद अहम थे. यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाने की चुनौती थी, जिसकी सिफारिश राष्ट्रपति ने लौटा दी.
एक कमजोर सरकार को संभालने में गुजराल पूरी तरह नाकाम रहे और साल भर के अंदर उनकी सरकार ने दम तोड़ दिया. 1998 में हुए आम चुनाव में लोगों ने जनता दल को पूरी तरह नकार दिया और फिर केंद्र का शासन बीजेपी और कांग्रेस में बंटने लगा. गुजराल ने तभी राजनीति से तौबा कर ली.
हालांकि उनके सुझाव आते रहे. भारत और पाकिस्तान दोनों के परमाणु परीक्षण करने के बाद जब दुनिया उनसे रुसवा हो चुकी थी और दोनों पड़ोसियों के बीच भी तनाव था, तब भी गुजराल ने बीच का रास्ता निकालने का सुझाव दिया.
हमेशा लो प्रोफाइल में रहने वाले गुजराल मीडिया के साथ उठते बैठते. अपने छोटे भाई सतीश गुजराल की पेंटिंग की नुमाइश में पहुंच जाते और कभी कभी खुद भी कूची पर हाथ आजमा लेते. उर्दू के बेहतरीन शेर लिखते और लोगों को सुनाते.
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ
संपादनः निखिल रंजन