जिंदगी का सबक
जुलाई अगस्त में जहां दुनिया के देशों में स्कूलों का नया साल शुरू होता है, वहीं लेबनान में शरणार्थी बच्चे सदमे के मारे और सड़कों के हवाले हैं. कुछ अस्थाई स्कूल उन्हें सामान्य जीवन का अहसास कराने के लिए बनाए गए हैं.
सड़कों पर
सात साल की नरिमन बेरुत के रेस्तरां के बाहर टिशू पेपर बेचती है. सीरिया छोड़ने के वक्त वह दूसरा क्लास में थी. ये पैकेट उसे उसके अंकल देते हैं. हर दिन उसे शाम छह बजे के पहले 12 हजार लेबनानी पाउंड्स कमाने ही हैं.
मुश्किल सबक
मोहम्मद और अहमद जूते पॉलिश कर पैसा कमाते हैं. 2011 से वो स्कूल नहीं गए. अहमद बताता है, "हम स्कूल मिस करते हैं. लेकिन स्कूल में हम से कहा गया कि हम शरणार्थी हैं तो ही वो हमें लेंगे. लेकिन मेरे पिता बीमार हैं उन्हें सीरिया जाना ही होगा. अगर वो पंजीकरण करवाते हैं तो सीमा पर उन्हें पकड़ लिया जाएगा. इसलिए हम स्कूल नहीं जाते."
खाली वक्त
तीन साल का सिमोन सीरिया में रहने वाले आर्मेनियाई परिवार का हिस्सा है. जो रेफ्यूजी बच्चे स्कूल नहीं जाते, वो दिन भर टीवी देख कर या खेल कर बिताते हैं. यूएन के मुताबिक चार लाख बच्चों में से सिर्फ 90,000 ही स्कूल जाते हैं.
थैरेपी
बेरुत के करम जितून स्कूल को चलाने वाले गैर सरकारी संगठन की एक संस्थापक शार्लोट बैर्ताल बताती हैं, "वो अपने माता पिता की कहानियां सुनते हैं. लड़ाई की, पैसे खत्म हो जाने की बात करते हैं. जब वो स्कूल आते हैं, तो फिर बच्चे बन जाते हैं." स्कूलों की क्रिएटिव क्लास थैरेपी की तरह काम करती हैं.
दूसरा जीवन
इंग्लिश सीखता एक बच्चा. इन शरणार्थी बच्चों को लेबनान के पब्लिक स्कूल में दाखिल कराने की कोशिश करवाई जाएगी बशर्ते पैसे और जगह कम न पड़े. 14 साल की सुजाने कलाकार बनना चाहती हैं. वो कहती हैं, "ये मेरा दूसरा जीवन है. स्कूल के बिना जिंदगी एकदम बेकार लगती है."
कठिन गणित
ग्यारह साल की डायना बेरुत के इस स्कूल में गणित की कक्षा में ध्यान लगाने की कोशिश कर रही हैं. टीचर नासिर अल इस्सा के मुताबिक, "एक मुश्किल ये है कि परिवार घर पर बच्चों को नहीं पढ़ाते. पढ़ाई सिर्फ स्कूल में ही होती है."
खाने की समस्या
बच्चे स्कूल में खाना खाते हैं, आस पास के इलाके में एक कमरे का किराया 400 से 500 डॉलर के बीच है. एंड्र्यू सालामेह चर्च और गैर सरकारी संगठन के साथ मिल कर स्कूल चला रहे हैं. वह कहते हैं कि किराये के लिए इतना पैसा देने पर उनके पास खाना खरीदने के लिए कुछ नहीं बचता.
इस घर से उस घर
बेरुत के इस स्कूल से आस पास के अपार्टमेंट दिखते हैं. स्कूली बच्चों के परिवार यहीं आस पास ही रहते हैं. कुछ कमरे तो सीढ़ियों के नीचे या फिर छत पर भी हैं.
रचनात्मक
स्कूल में कई तरह की वर्कशॉप और रचनात्मक कक्षाएं होती हैं. जिससे बच्चों को मदद मिलती है. जरूरत होने पर बच्चों को डॉक्टर के पास भी भेजा जाता है. 12 साल की आश्ता रचनात्मक लेखन क्लास में खिड़की से बाहर झांकती हुई.
खो चुकी पीढ़ी
किराये के कमरों में रह रहा परिवार. सीरिया में खेती करने वाले हैदर (असली नाम नहीं) बताते हैं, "मैं इन्हें यहां ले आया क्योंकि मुझे डर था कि ये कभी नहीं पढ़ेंगे. मैं उन्हें पढ़ाना चाहता था. बहुत बड़ा नुकसान है. अगर इन्हें कोई रास्ता नहीं मिला तो ये पूरी पीढ़ी खो जाएगी."
ध्यान नहीं
सीरिया की सीमा से लगे लेबनानी शहर बार एलियास में गैर सरकारी संगठन सावा ने स्कूल शुरू किया है. यहां पढ़ाने वाले टीचर शम्स इब्राहिम भी शरणार्थी हैं. वह बताते हैं, "बच्चे इतने डर से गुजरे हैं और उन्हें इतना तनाव है कि अब वह और नहीं कर सकते. डर की सीमा वो पार कर चुके हैं."