दावोस में मोदी-ट्रंप 'खंडित' दुनिया को देंगे मंत्र
१५ जनवरी २०१८1971 में गठित संगठन की यह 48वीं बैठक होगी. मकसद है कि दुनिया के तमाम देशों और उनकी ताकतों के बीच बेहतर तालमेल से मजबूत माहौल बने. बड़ी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सभी मिल जुलकर मुकाबला कर सकें और दुनिया का माहौल सकारात्मक हो. 400 से अधिक बैठकों के होने वाले दौर में 100 से ज्यादा देशों के 2500 से अधिक प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे. इस बार विश्व आर्थिक फोरम समुदायों और संगठनात्मक क्षमता के साथ 14 विशेष प्रयासों से सकारात्मक बदलाव के लिए जुटेगा. इसमें ग्लोबल एजेंडा के तहत वैश्विक प्रशासन तंत्र को सुधारने और प्रमुख बहुपक्षीय योजनाओं को बढ़ाने की कोशिशें होंगी.
इस बैठक में जहां डॉनल्ड ट्रंप साल 2000 में बिल क्लिंटन के बाद भाग लेने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति होंगे, वहीं नरेंद्र मोदी 1997 में एचडी देवेगौड़ा के बाद शामिल होने वाले भारत के दूसरे प्रधानमंत्री होंगे.
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भूराजनीतिक एजेंडा के तहत नेताओं और विशेषज्ञों को तैयार करने और नई रणनीति बनाने पर ध्यान होगा. आर्थिक एजेंडा में कम विकास दर के मुकाबले टिकाऊ और समावेशी आर्थिक विकास प्रदान करने तथा कौशल के अंतर को कम करने पर चर्चा होगी. क्षेत्रीय एजेंडा में सभी क्षेत्रों में होने वाले सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों की गहराई में जांच की जाएगी. उद्योग-व्यापार एजेंडा के तहत नए उद्योग के लिए परिस्थियां निर्मित कर चौथी औद्योगिक क्रांति की तैयारी करने की योजना बनाई जाएगी. और भावी एजेंडा में विचारों और खोजों को साझा किया जाएगा ताकि वैश्विक प्रणालियों का प्रभावी पुनर्निर्धारण हो सके.
यूं हुई शुरुआत
1971 में यूरोपियन मैनेजमेंट फोरम के नाम से इस फोरम की स्थापना जर्मन अर्थशास्त्री क्लाउस श्वाब और उनकी पत्नी हिल्डे श्वाब ने की. इसमें प्रोफेसर श्वाब ने यूरोपीय व्यवसाय के 444 अधिकारियों को अमेरिकी प्रबंधन से मुखातिब कराया. 1987 में इसका नाम बदल कर विश्व आर्थिक फोरम किया गया और तब से अब तक हर साल जनवरी में दावोस में इसकी बैठक होती है.
पहले प्रबंधन के तरीकों पर चर्चा होती थी. जब 1973 में कई देश अलग होने लगे, तब बैठक का ध्यान आर्थिक और सामाजिक मुद्दों की ओर गया और तब पहली बार राजनीतिज्ञों को बुलाया गया. यह एक तटस्थ मंच के रूप में इस्तेमाल हुआ. 1988 में ग्रीस और तुर्की ने यहीं आपसी युद्ध को टालने की घोषणा की. 1992 में रंगभेद नीति से इतर पहले अश्वेत दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला भी जुड़े. 1994 में इस्राएल और फलस्तीन ने आपसी सहमति के मसौदे पर यहीं मुहर लगाई.
बदलती दुनिया पर असर
अब शीत युद्ध वाला वह जमाना नहीं रहा जब तमाम देश, दुनिया में पावर सेंटर रहे अमेरिका और रूस की ओर निहारते थे. बदले दौर में चीन, जापान, कोरिया, इस्राएल जैसे देश बड़ी सैन्य या आर्थिक या दोनों ताकतों के रूप में उभरे हैं. वहीं भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है.
इस बदले दौर में विश्व आर्थिक फोरम की भूमिका और भी खास हो गई है. कई शासन प्रणालियां भी बदली हैं. लेकिन सभी चाहते हैं कि दुनिया एक हो और उनके नागरिक तरक्की करें तथा पूरा विश्व एक सामाजिक गठबंधन की गांठ में बंध जाए. यह दौर टिकाऊ विकास का है जिसमें विकास की नीतियां बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि इंसान की न केवल मौजूदा जरूरतों की पूर्ति हो, बल्कि साथ ही पर्यावरण की सुरक्षा भी सुनिश्चित हो.
दावोस में निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी भारत की आर्थिक रूप से तेज रफ्तार वृद्धि, मौजूदा बेशुमार अवसरों और विश्व बैंक के "ईज ऑफ डूइंग बिजनेस" में भारतीय रैंकिंग के 30 से 100 की ऊंची छलांग को दुनिया के निवेशकों के सामने रखेंगे. शायद वे यह भी बताएं कि कैसे भारत में निवेश और व्यवसाय पहले से काफी आसान हुआ है. नौकरशाही और लालफीताशाही में काफी कमी आई है तथा जीएसटी और दूसरे आर्थिक सुधारों के कारण आने वाले चंद सालों में भारत दुनिया के टॉप 50 देशों में पहुंच जाएगा. वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अमेरिकी व्यवसायों, उद्योगों और श्रमिकों को मजबूत करने के लिए अपने "अमेरिका फर्स्ट" के एजेंडे को बढ़ावा देंगे.
बदले हुए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिणामों के बीच समावेशी विकास को सुरक्षित रखने, दुर्लभ संसाधनों को बचाने, सामूहिक विफलता से जूझने की खातिर सहयोग के नए मॉडल विकसित करना दावोस का पहला प्रयास है. ऐसे में "खंडित दुनिया में साझा भविष्य का निर्माण" की परिकल्पना रोमांचित करती है.
ऋतुपर्ण दवे (आईएएनएस)