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जाना एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी का

२९ अक्टूबर २०१३

राजेंद्र यादव नई कहानी की उस तिकड़ी के सदस्य थे जिसने बाकायदा योजनाबद्ध ढंग से इस साहित्य आंदोलन को शुरू किया था और एक नई साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में नई कहानी को प्रतिष्ठित करके ही दम लिया था.

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तस्वीर: cc-by-nc-sa3.0/Tiwaribharat

नई कहानी की तिकड़ी में राजेंद्र यादव के साथ मोहन राकेश और कमलेश्वर थे. इसमें संदेह नहीं कि इन तीनों ने हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में असाधारण और ऐतिहासिक भूमिका निभाई. राजेंद्र यादव अपने पहले ही उपन्यास "प्रेत बोलते हैं" से साहित्य की दुनिया पर छा गए थे क्योंकि इसमें पहली बार निम्न मध्यवर्ग की त्रासदी व्यक्त हुई थी. 1951 में प्रकाशित इस उपन्यास को बाद में "सारा आकाश" के नाम से छापा गया और 1969 में बासु चैटर्जी ने उस पर इसी नाम की फिल्म भी बनाई. मृणाल सेन की "भुवनशोम" के साथ ही इस फिल्म को भी हिन्दी सिनेमा में समांतर फिल्म आंदोलन की शुरुआत करने वाला माना जाता है. राजेंद्र यादव के दूसरे दो उपन्यास ‘कुलटा' और "शह और मात" भी मशहूर हुए पर "सारा आकाश" का स्थान कोई भी न ले सका. प्रसिद्ध कथाकार मन्नू भंडारी के साथ उनकी शादी भी साहित्य जगत में चर्चा का विषय रही और जब दोनों ने मिलकर संयुक्त रूप से एक उपन्यास लिखने का प्रयोग किया, तो उनकी ख्याति आसमान छूने लगी, भले ही ‘एक इंच मुस्कान' को उपन्यास के रूप में असंदिग्ध स्वीकृति न मिल पायी हो. राजेंद्र यादव ने ‘एक दुनिया समांतर' लिखकर नई कहानी का सौंदर्यशास्त्र रचने की भी कोशिश की, जो काफी हद तक सफल रही.

1980 के दशक तक आते-आते राजेंद्र यादव ने महसूस कर लिया था कि अब उनकी रचनात्मकता में वह आवेग नहीं रह गया है जो कभी हुआ करता था. लेकिन इससे निराश या हतोत्साहित होने के बजाय उन्होंने अपना पुनराविष्कार किया और 1986 में हंस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. हंस पत्रिका को प्रेमचंद ने 1930 के दशक में शुरू किया था लेकिन 1953 तक आते-आते उसका प्रकाशन बंद हो चुका था. राजेंद्र यादव ने इसका पुनर्प्रकाशन करने के लिए प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई को चुना.

हंस के संपादक के रूप में राजेंद्र यादव ने इतनी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक भूमिका निभाई कि पिछले तीन दशकों के दौरान हिन्दी साहित्य में प्रवेश करने वाले लेखक उनके लेखन से कम, सम्पादन से ही अधिक परिचित हुए. उन्होंने हंस को लोकतांत्रिक संवाद और बहस-मुबाहिसे का एक ऐसा खुला मंच बना दिया जैसा हिन्दी में पहले कभी नहीं था. हंस अकेली ऐसी पत्रिका थी जिसमें संपादक के नाम पत्र स्तंभ के अंतर्गत छपने वाले पत्रों में अधिकांश पत्र वे होते थे जिनमें संपादक की या पत्रिका की कड़ी आलोचना होती थी.

हंस के संपादकीय धीरे-धीरे एक साहित्यिक संस्था में तब्दील होते गए क्योंकि उनके माध्यम से राजेंद्र यादव सामयिक सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बेलाग ढंग से अपने गैर-पारंपरिक और अक्सर चौंकाने वाले विचार प्रकट करते थे. पहली बार किसी साहित्यिक पत्रिका ने हिन्दी साहित्य में सवर्णवाद, दलित रचनाशीलता और स्त्री विमर्श के सवालों को केंद्र में रखकर न केवल गंभीर और गर्मागर्म बहसें चलाईं, बल्कि उसमें दलित साहित्य और स्त्री विमर्शवादी साहित्य को प्रमुखता से स्थान दिया जिसके कारण दलित और स्त्री विमर्शवादी लेखक-लेखिकाओं की रचनाशीलता साहित्य संसार के सामने आ पाई. हर किस्म की सांप्रदायिकता के खिलाफ राजेंद्र यादव ने संपादकीय लिखे और दूसरों के लेख छापे. इस क्रम में वे अनेक विवादों में भी घिरे लेकिन उन्होंने विवादों की परवाह करने के बजाय उनका आनंद लिया जिसके कारण उनके बारे में यह धारणा भी बनने लगी कि वे जानबूझकर भी विवाद खड़े करते हैं और उनके केंद्र में बने रहना चाहते हैं.

सच जो भी हो, इसमें संदेह नहीं कि लीक से हटकर चलने में राजेंद्र यादव को कभी भी कोई हिचक नहीं हुई और उन्होंने अनेक युवा लेखक-लेखिकाओं को भी लीक से हटकर चलना सिखाया. इस क्रम में राजेंद्र यादव हिन्दी के पहले सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में उभरे, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे अमेरिका में नोम चोम्सकी और बंगला भाषा में महाश्वेता देवी हैं.

सामाजिक-राजनीतिक बहस और दलित एवं स्त्री विमर्श चलाने के क्रम में हंस का सम्पादन काफी कुछ ढीला होता गया, लेकिन एक व्यापक लोकतांत्रिक मंच के रूप में उसकी उपादेयता भी उसी अनुपात में बढ़ती गई. राजेंद्र यादव के निधन के बाद हंस का भविष्य भी अधर में लटक गया है. हिन्दी साहित्य जगत में अब और कोई सार्वजनिक बुद्धिजीवी नजर नहीं आता.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: आभा मोंढे