जहरीले पारे में घुलती दुनिया
१६ जनवरी २०१३हर साल 2,000 टन पारा इंसानी वातावरण का हिस्सा बन रहा है. इसका असर सीधे हमारे हृदय और परिसंचरण तंत्र पर पड़ रहा है. फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ जर्मनी नाम की जर्मन पर्यावरण संरक्षण संस्था में रसायनों की जानकार सारा हैउसर ने डॉयचे वेले को बताया, "हमें उम्मीद है कि इस बातचीत के जरिए कोई ऐसे उपाय निकलेंगे जिनसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पारे से होने वाला प्रदूषण कम किया जा सके." सारा ने बताया कि इन फैसलों के बाद पारे की नई खानें खुलने पर तो पाबंदी लग ही जाएगी साथ ही पुरानी खानें भी बंद हो जाएंगी.
पारे का इस्तेमाल बैटरी और बिजली बचाने वालो बल्बों जैसे औद्योगिक उत्पादन के लिए भी सही नहीं है. सारा के अनुसार सोने की खानों में पारे के इस्तेमाल पर भी प्रतिबंध लगना चीहिए जो कि विकासशील देशों में मुख्य समस्या है. मानव अधिकार से जुड़े आंकड़ों के अनुसार 1.3 करोड़ लोग जो इन खानें में काम करते हैं वे पारे के सम्पर्क में असुरक्षित ढंग से आते हैं. इनमें कई बच्चे भी होते हैं जिन पर पारे का बहुत बुरा असर पड़ता है. संयुक्त राज्य की पर्यावरण एजेंसी यूनेप की रिपोर्ट के अनुसार सोने की खानों में पारे का उत्सर्जन 2005 से अब तक दोगुना हो चुका है.
स्वास्थ्य सुरक्षा
मानव अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच (एचआरडब्ल्यू) ने मांग की है कि पारा संबंधित किसी भी समझौते में स्वास्थ्य सुरक्षा के नियम भी शामिल हों. संगठन से जुड़े यूलियाने किपेनबेर्गर ने डॉयचे वेले से कहा, "लोगों तक इस बात की जानकारी पहुंचनी चाहिए कि पारे का मानव शरीर पर क्या असर पड़ता है. साथ ही इससे बचने के तरीके भी बताए जाने चाहिए." इस तरह की बातें लोगों तक क्षेत्रीय स्वास्थ्य संगठनों को पहुंचानी होंगी.
एचआरडब्ल्यू ने इस बात की आलोचना भी की कि बातचीत में प्रगतिशील देश ही पर्यावरण संरक्षण पर जोर दे रहे हैं. किपेनबेर्गर ने कहा "अच्छी बात होगी अगर जर्मनी जैसे पश्चिमी देश भी इस दिशा में सोची समझी कार्यनीति के साथ अपना योगदान दिखाएं."
एशिया में सबसे ज्यादा नुकसान
पारे से होने वाले कुल प्रदूषण में लगभग आधा योगदान एशियाई देशों का है. खासकर कोयले से जलने वाले ऊर्जा घरों का जिनमें सही फिल्टर का इस्तेमाल नहीं होता. नदियों और तालाबों में घुलने वाला पारा सीधे मछलियों के शरीर में जाता है. उन्हें खाने से यही पारा मानव शरीर में प्रवेश कर जाता है. यूनेप रिपोर्ट के अनुसार पिछले 100 सालों में समुद्र की ऊपरी 100 मीटर सतह पर पारे की मात्रा दोगुनी हो गई है. यूरोपीय पर्यावरण ब्यूरो 140 पर्यावरण संबंधी संस्थाओं का संगठन है. इस संगठन की एलेना लिम्बेरीडी सेटीमो कहती हैं, "ज्यादातर एशियाई देश ही सख्त नियमों का विरोध करते हैं. भारत और चीन अपने अपने नियम बनाना चाहते हैं. अब तक उन्होंने पारे के उत्सर्जन को सीमित करने वाले सभी नियमों से इनकार किया है."
यूरोपीय यूनियन को लेनी होगी जिम्मेदारी
इस समझौते में दूसरा अहम मुद्दा पैसों का है. सेटीमो ने बताया, "पैसे देने वाले देश और विकासशील देश इस मुद्दे पर अलग अलग मत रखते हैं. विकासशील देशों के लिए पैसों की मदद के बारे में भी फैसला बातचीत के अंत में ही सामने आएगा."
विकासशील देशों के सामने एक समस्या यह भी आती है कि पारे का विकल्प क्या हो. विकल्प सस्ता भी होना चाहिए. इसकी जरूरत सोने की खानों के अलावा दांतों के इलाज और थर्मामीटर के लिए भी है. साथ ही कोयले से चलने वाले ऊर्जा घरों में फिल्टर के रूप में इसका उपयोग होता है.
मीनामाटा समझौता
लिम्बेरीडी स्टीमो को उम्मीद है कि पारे के इस समझौते से इस तरह के और रसायन सम्बंधी समझौतों के लिए रास्ते खुलेंगे. उन्होंने कहा, "पिछले समझौतों के मुकाबले इस समझौते की खास बात यह है कि इसमें शामिल होने की बात आर्थिक फायदे से भी जुड़ी है. जिनेवा में 18 जनवरी तक चलने वाली यूनेप की इस बातचीत में 147 देशों से प्रतिनिधि शामिल हुए हो रहे हैं. सेटीमो ने बताया, "इस बातचीत में लिया जाने वाला फैसला मीनामाटा समझौते के नाम से जाना जाएगा. यह नाम जापान के एक शहर के नाम पर रखा जाएगा जो कि पिछले कई दशकों से पारे के प्रदूषण से जूझ रहा है.
रिपोर्ट: मिरयम गेहर्के/एसएफ
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी