1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

जर्मनी में हुए तुर्क रेफरेंडम के सबक

१७ अप्रैल २०१७

जनमत संग्रह में भाग लेने वाले 60 प्रतिशत जर्मन-तुर्कों ने तुर्की में राष्ट्रपति व्यवस्था का समर्थन किया है. डॉयचे वेले की संपादक इनेस पोल का कहना है कि ये नतीजा जर्मनी को नींद से जगाने वाला है.

https://p.dw.com/p/2bLxl
Symbolbild Deutschland - Türkei Flaggen
तस्वीर: picture-alliance/dpa/C. Charisius

नहीं, ये नतीजा न्यायोचित तरीके से नहीं आया है. जो विरोधियों को गिरफ्तार करता है, विपक्ष के प्रचार पर रोक लगाता है और पत्रकारों का मुंह बंद करता है, वो लोकतांत्रिक वैधता का दावा नहीं कर सकता. और चूंकि रेचेप तैयप एर्दोवान ने ऐसा ही व्यवहार किया है और फिर भी सरकारी आंकड़ों के हिसाब से सिर्फ मामूली जीत हासिल की है, तुर्क राष्ट्रपति को और ज्यादा अधिकार देने का फैसला स्वतंत्र चुनाव का नतीजा नहीं है, बल्कि एक लोकतांत्रिक राज्य पर बलात कब्जा है.

जर्मनी में मुक्त फैसला

जर्मनी में स्थिति अलग है. यहां रहने वाले करीब 15 लाख तुर्क नागरिक सूचना पाने के लिए आजाद थे. सभी महत्वपूर्ण पार्टियों की चुनाव सभाएं हुईं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई बंधन नहीं था, भावी निरंकुश शासक की आलोचना करने वाले को जेल जाने का डर नहीं था. फिर भी जर्मनी में वोट देने वाले 63 प्रतिशत लोगों ने एर्दोवान के संवैधानिक संशोधन का समर्थन किया. आंकड़ों में ये 450,000 लोग थे. इन आंकड़ों को जर्मनी को झकझोड़ देना चाहिए. यदि जर्मनी में रहने वाले इतने सारे लोग एक ऐसे इंसान का समर्थन कर रहे हैं जो फिर से मौत की सजा बहाल करना चाहता है, तो सारी कामयाबियों के बावजूद आप्रवासियों के समेकन में कुछ न कुछ खामी रह गई है.

सही सबक सीखने के लिए जर्मनी को ईमानदारी दिखानी होगी. राजनीतिक और सामाजिक संगठनों को अपनी गलतियों को स्वीकार करना होगा. चुनाव के इस साल में यह आसान नहीं है. दोहरी नागरिकता के बारे में लोकलुभावन बहस और आसानी से लोगों को देश के बाहर कर देने के सपने बंद गली में ले जाते हैं और आखिर में सिर्फ उग्र दक्षिणपंथी एएफडी को फायदा पहुंचायेंगे.

Ines Pohl
मुख्य संपादक इनेस पोलतस्वीर: DW/P. Böll

ईयू सदस्यता पर फैसला

जर्मनी यूरोपीय संघ के मुख्यालय ब्रसेल्स से भी किसी खास रचनात्मक समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकता. जनमत संग्रह के अगले दिन सर पीटने या ईयू सदस्यता वार्ता को रोकने की धमकी जैसी प्रतिक्रिया बेबसी से भरी और बेतुकी लगती है. दरअसल सालों के इसी उहापोह ने बहुत सारे तुर्कों को यह अहसास दिया है कि उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता और अंत में एर्दोवान ने स्पष्ट ईयू विरोधी नीति के साथ पुरानी ताकत और मजबूती दिखाने का फैसला किया है.

ईयू को अपनी नीति साफ करनी होगी. यदि तुर्की पूर्ण सदस्य के रूप में वांछित नहीं है, तो उसे यह बात ईमानदारी से बता दी जानी चाहिए और सहयोग के दूसरे रास्ते तलाशे जाने चाहिए. आखिरकार तुर्की को आर्थिक रूप से यूरोप की कहीं ज्यादा जरूरत है. यह बात एर्दोवान को भी पता है. उनका कद इसलिए बढ़ता गया है क्योंकि वे आर्थिक तौर पर कामयाब थे. और उनके सितारे तेजी से गर्दिश में चले जायेंगे यदि आर्थिक अवनति इसी तेजी से जारी रही. इस समय ही महंगाई की दर 11 प्रतिशत है और बेरोजगारी की दर 13 प्रतिशत हो गयी है.

जर्मनी के तुर्कों की मदद

जर्मनी को एर्दोवान समर्थकों की अपनी समस्या खुद ही सुलझानी होगी. इसके लिए उसे स्वीकार करना होगा कि वह आप्रवासन का देश है. प्रमुख संस्कृति या सांस्कृतिक बहुलता की बहस छोड़कर लोकतांत्रिक संविधान का खुला समर्थन करना होगा. जो जर्मनी में रहता है उसे स्वीकार करना होगा कि यहां बाल विवाह पर रोक है और सम्मान के नाम पर हत्या अपराध है. यहां समलैंगिकों और महिलाओं को समानता है. संविधान सर्वोपरि है, जिस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है.

पोपुलिस्टों को कामयाबी के लिए असुरक्षा की जरूरत होती है. वे डर फैलाते हैं ताकि रक्षक की भूमिका निभा सकें. इस प्रतिस्पर्धा में पड़ने की जरूरत नहीं क्योंकि आखिर में वही जीतता है जो सबसे ज्यादा शोर करता है. इसलिए अब उन 30 लाख तुर्क मूल के लोगों की जरूरत है जिनके पास या तो अब तुर्की की नागरिकता नहीं है या जो एर्दोवान की अलोकतांत्रिक नीतियों के खिलाफ हैं. उन्हें जर्मन बहुसंख्यक समाज और तुर्क समुदाय के बीच पुल का काम करना होगा. क्योंकि उन्हें ये जानकारी चाहिए कि इतने सारे जर्मन तुर्कों को फुसलाना कैसे संभव हुआ.