छह दिसंबर के सबक
२९ सितम्बर २०१०''...समतल नहीं होगा कयामत तक
पूरे मुल्क की छाती पर फैला मलबा
ऊबड़-खाबड़ ही रह जाएगा यह प्रसंग
इबादतगाह की आख़िरी अज़ान
विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई…''
हिंदी कवि सुदीप बनर्जी की यह कविता छह दिसंबर 1992 की उस काली तारीख़ की शोक भरी याद है. एक मस्जिद को इसलिए गिरा दिया गया क्योंकि वह हिंदू कट्टरपंथियों के मुताबिक उनके ही देश पर उनकी ही छाती पर एक नासूर की तरह खड़ी थी...वह मस्जिद...एक ऐतिहासिक इमारत जो कहते हैं पहले मुगल बादशाह बाबर ने बनवाई थी और जो यूं भी समय इतिहास और बरसों के थपेड़े खाकर एक वीरान अहसास की उदास रंगतों में अयोध्या में सांस ले रही थीं.
उस अयोध्या में जिसे भगवान राम की जन्मस्थली बताया जाता है. मस्जिद गिराने वाले कारसेवकों का कहना था कि राम वहीं पर जन्मे थे जहां मस्जिद थी. लिहाज़ा उनकी जन्मभूमि आज़ाद कराना लाज़िमी था.
धूल के गुबार नफ़रत और हिंसा से भरे रेले ने सहसा बेजान इमारत की गुंबदों को गिराया और एक कल्पनातीत हुंकार लगाई. वो हुंकार अब भारत के समकालीन इतिहास के सीने पर एक गहरी कील की तरह धंस गई है. और यह दर्द इंसानी जज़्बात पर रह रह कर अपना साया डाल देता है. उधर मस्जिद गिरी, विजय पताकाएं फहराई जाने लगीं और वहीं कुछ कोनों में सहसा ख़ून की बौछारें फूट पड़ीं. छह दिसंबर 1992. 1947 के विभाजन और 84 के दंगों के बाद भारतीय समकालीन यथार्थ का सबसे बर्बर, सबसे घिनौना कांड माना जाता है.
एक आयोग बना. जस्टिस लिब्रहान आयोग. उसकी रिपोर्ट उसी कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार की देखरेख में संसद में पेश हुई पिछले साल. यह वही कांग्रेस है जिसके उस समय के विवादास्पद फ़ैसलों ने कट्टरपंथियों के लिए अयोध्या तक पहुंचने का रास्ता मुहैया कराया था.
जानेमाने शायर कैफ़ी आज़मी ने अपनी एक नज़्म में मानवीयता, करुणा और उदासी के साथ राम को देख लिया था...कि
''...पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहां ख़ून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राजधानी की फि़ज़ां आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे.''
इसी दूसरे बनवास के साए में भारत के आम जन के लिए शांति, करुणा और प्रेम के सिवा कोई बड़ी कामना क्या होगी.
रिपोर्ट: शिवप्रसाद जोशी
संपादन: ओ सिंह