सुधारों की बहस
१७ अप्रैल २०१४केन्द्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता कपिल सिबल ने आरोप लगाया है कि केवल भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार पर ही पांच हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं. हालांकि बीजेपी ने इस आरोप का खंडन किया है, और संभव है कि सिबल ने अतिशयोक्ति से काम लिया है, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार पर होने वाला खर्च अभूतपूर्व है. और खर्च के मामले में सभी पार्टियां और प्रत्याशी कमोबेश दोषी हैं.
इस चुनाव में भी आपराधिक छवि वाले ऐसे अनेक उम्मीदवार खड़े किए गए हैं जिनके लिए पार्टी बदलना कपड़े बदलने जैसा है. स्वयं वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस ने एक ऐसे ही उम्मीदवार को मैदान में उतारा है. चुनाव संसदीय लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है, लेकिन अब यह अंग इतनी व्याधियों का शिकार हो चुका है कि इसके कारण लोकतंत्र के पूरे शरीर में जहर फैलने लगा है. आश्चर्य नहीं कि लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंता करने वाले लोग एक बार फिर चुनाव सुधारों की जरूरत को शिद्दत के साथ महसूस करने लगे हैं.
एक समय था जब बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता अक्सर चुनाव सुधारों की बात किया करते थे. 1980 के दशक में कई बार इस लेखक के साथ बात करते हुए उन्होंने भारतीय चुनाव प्रणाली की खामियों की चर्चा की थी और इस सिलसिले में जर्मन प्रणाली के अध्ययन की जरूरत पर बल दिया था. उन दिनों वह राजनीति में शुचिता और पारदर्शिता की मांग किया करते थे, कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर उंगली उठाते थे और खर्चीले चुनावों को भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण मानते थे.
भारतीय चुनाव प्रणाली में जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत मिलते हैं, उसे विजयी घोषित किया जाता है. यानि कोई उम्मीदवार केवल एक वोट की बढ़त से भी जीत सकता है और कभी-कभी कुछ उम्मीदवार केवल एक वोट से जीते भी हैं. अक्सर विजयी उम्मीदवार को तीस-पैंतीस प्रतिशत वोट भी नहीं मिलते, यानि उसके चुनावक्षेत्र के मतदाताओं में से पैंसठ-सत्तर प्रतिशत उसके पक्ष में नहीं होते, फिर भी वह चुनाव जीत जाता है और पूरे क्षेत्र का जनप्रतिनिधि बन जाता है. आपराधिक छवि भी उसके आड़े नहीं आती, बल्कि उसकी जीत को सुनिश्चित ही करती है. इसलिए राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ जबानी जमाखर्च करने वाली पार्टियां चुनाव के वक्त इन्हें टिकट देने में संकोच नहीं करतीं. चुनाव के बेहद खर्चीले होते चले जाने के कारण केवल वही व्यक्ति इनमें खड़ा हो सकता है जिसके पास या तो अपना खुद का काफी धन हो या जिसमें प्रचुर मात्रा में धन इकट्ठा करने की सामर्थ्य हो. इसलिए आडवाणी समेत अनेक नेता 1980 के दशक में चुनाव के लिए सरकार द्वारा धन मुहैया कराये जाने की व्यवस्था अपनाने की हिमायत करते रहे हैं.
लेकिन अब चुनाव सुधार किसी भी पार्टी के तात्कालिक एजेंडे पर नहीं है. जुलाई 1998 में निर्वाचन आयोग ने राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने के लिए ऐसा कानून बनाए जाने का प्रस्ताव दिया था कि जिस व्यक्ति पर चुनाव की घोषणा होने के छह माह पहले तक किसी अदालत द्वारा किसी आपराधिक मामले में आरोप तय कर दिये गए हों, वह चुनाव न लड़ सके. इस प्रस्ताव को नवंबर 1999, जुलाई 2004 और अक्तूबर 2006 में दुहराया गया लेकिन सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया. इसे अनदेखा करने वाली सरकार 1999 में केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में सरकार थी और जुलाई 2004 में और उसके बाद से अब तक कांग्रेस के के नेतृत्व में सरकार चल रही है. इसी तरह निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों का पंजीकरण करने और जरूरत पड़ने पर उसे रद्द करने के अधिकार की मांग करते हुए जुलाई 1998 और 2004 में इस संबंध में कानून बनाए जाने का प्रस्ताव किया था.
निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों के खातों का ऑडिट कराने और उसे सार्वजनिक करने का भी प्रस्ताव किया ताकि वे पारदर्शी तरीके से धन इकट्ठा करें, लेकिन उसे भी नजरंदाज कर दिया गया. राजनीति में धर्म के दुरुपयोग को रोकने के लिए 1994 में संसद में एक विधेयक लाया गया था लेकिन 1996 में संसद भंग होते ही वह निष्प्रभावी हो गया. निर्वाचन आयोग ने फिर से ऐसा विधेयक लाने का प्रस्ताव किया लेकिन वही ढाक के तीन पात. फरवरी 2011 में आयोग ने पेड न्यूज को रोकने के लिए कानून बनाए जाने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश की. लेकिन कुछ नहीं हुआ. इस समय लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली की जड़ों को कमजोर करने में पेड न्यूज की बहुत बड़ी भूमिका है.
राजनीतिक पार्टियां और नेता अखबारों और टीवी चैनलों के मालिकों के साथ करार कर लेते हैं और एक बड़ी धनराशि के बदले अखबार और टीवी चैनल उनके पक्ष में खबरें छापने को तैयार हो जाते हैं. यानि विज्ञापन को पाठकों और दर्शकों के सामने खबर की तरह परोसा जाता है. किसी चुनावक्षेत्र का दौरा करने के बाद अक्सर पत्रकार अपनी रिपोर्टों में अपना स्वतंत्र आकलन पेश करते हैं और इन रिपोर्टों को पढ़कर अनेक मतदाता किसे वोट देना चाहिए यह तय करते हैं. लेकिन पेड न्यूज के कारण पाठक या दर्शक को पता ही नहीं चलता कि जिसे वह स्वतंत्र आकलन समझ रहा है, वह दरअसल पैसा लेकर किया जा रहा विज्ञापन है.
पेड न्यूज प्रेस की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा है और स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है. अब यह धारणा आम होती जा रही है कि प्रेस की स्वतंत्रता मूलतः मीडिया संगठनों के मालिकों की मुनाफा कमाने की स्वतंत्रता में बदलती जा रही है. इस स्थिति को ठीक करने के लिए दूरगामी चुनाव सुधारों की जरूरत है.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार
संपादन: महेश झा