गोपनीयता संबंधी कानून बदले
५ जनवरी २०१५प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इन बयानों पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि लोकतंत्र में विरोधी विचारधाराओं को मानने वालों के बीच संवाद के माध्यम से ही राजनीतिक व्यवस्था को संतोषजनक ढंग से चलाया जा सकता है और संवाद का माहौल बनाने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. इसी तरह यदि आलोचना, चाहे वह राजनीतिक दल और नेता करें या मीडिया, स्वस्थ नहीं होगी और बेबुनियाद आरोप ही राजनीतिक विमर्श पर हावी रहेंगे, तो लोकतंत्र सुचारु रूप से नहीं चल सकता.
नरेंद्र मोदी ने समस्या की ओर तो ध्यान आकृष्ट किया है, लेकिन उसके लिए कमोबेश मीडिया को ही जिम्मेदार ठहराया है जबकि हकीकत यह है कि लगभग सभी राजनीतिक दल और उनके नेता अपने विरोधियों पर बिना किसी पुख्ता सबूत के मनमाने आरोप लगाते हैं और मीडिया उन आरोपों को खबर बना कर प्रसारित करता है. स्वयं अखबार या टीवी चैनल अपनी ओर से कभी-कभार ही राजनीतिक नेताओं या सरकार के खिलाफ आरोप लगाते है. और जब वे लगाते हैं, तो अक्सर उनके पास उन्हें पुष्ट करने के लिए ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग या दस्तावेजी सुबूत होते हैं. इसलिए स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि यदि प्रधानमंत्री मोदी इस समस्या के प्रति गंभीर हैं, तो सबसे पहले उन्हें अपनी पार्टी के नेताओं पर अंकुश लगाना होगा और उन्हें समझाना होगा कि तात्कालिक चुनावी या राजनीतिक लाभ के लिए वे विरोधियों के खिलाफ बेबुनियाद आरोप न लगाएं.
पिछले दिनों सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह, जिन्हें मोदी का सबसे अधिक नजदीकी सहयोगी माना जाता है, ने पश्चिम बंगाल में एक जनसभा को संबोधित करते हुए आरोप लगाया था कि सारदा चिटफंड के पैसे का इस्तेमाल 2 दिसंबर, 2014 को बर्दवान में हुए विस्फोट के लिए किया गया था. सारदा चिटफंड घोटाले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के कई बड़े नेता फंसे हुए हैं. पश्चिम बंगाल में भाजपा अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है जो स्वाभाविक रूप से तृणमूल कांग्रेस के लिए परेशानी का बायस है.
हमाम में राजनीतिक दल
शाह का बयान तृणमूल कांग्रेस पर आतंकवाद को समर्थन देने का आरोप लगाने वाला था. लेकिन मोदी सरकार के ही कार्मिक राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में बयान देते हुए कहा कि बर्दवान विस्फोट के तार बांग्लादेश के संगठन जमात उल-मुजाहिदीन के साथ जुड़े होने के बारे में जांच चल रही है लेकिन अभी तक ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है जिसके आधार पर कहा जा सके कि सारदा चिटफंड के पैसा का इस आतंकवादी गतिविधि के लिए इस्तेमाल किया गया.
ममता बनर्जी, मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव, दिग्विजय सिंह और बीमान बसु, लगभग सभी पार्टियों के नेता पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपने विरोधियों के खिलाफ मनमाने आरोप लगाते रहे हैं. 1980 के दशक में राजीव गांधी के खिलाफ भी बोफोर्स सौदे में रिश्वत लेने के आरोप लगे थे. लेकिन आज तक भी यह सिद्ध नहीं हो पाया कि उन्होंने या उनके परिवार के किसी सदस्य ने इस सौदे में रिश्वत ली थी. हर चुनाव के बाद हारने वाली पार्टी जीतने वाली पार्टी पर चुनाव में धांधली करने के आरोप लगाती है जबकि सिद्ध कुछ नहीं हो पाता.
सूचना का अधिकार
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यदि स्वस्थ आलोचना के पक्ष में आह्वान देते हैं, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्तारूढ़ दल इस संबंध में आदर्श प्रस्तुत करेगा. यहां यह याद दिलाना अनुचित न होगा कि स्वस्थ और संतुलित आलोचना के लिए प्रामाणिक जानकारी का होना अनिवार्य है. लेकिन यदि सरकार मीडिया के लिए जानकारी के दरवाजे ही बंद कर देगी, तब स्वस्थ आलोचना की परंपरा कैसे विकसित हो सकेगी.
सभी जानते हैं कि भारत में आज भी गोपनीयता संबंधी वही कानून लागू हैं जिन्हें ब्रिटिश शासकों ने जनता को सूचना से वंचित रखने के लिए बनाया था. पिछले दिनों राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने उन मीडिया संस्थानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की जरूरत पर बल दिया था जो सरकारी विभागों की कारगुजारियों के बारे में खबरें प्रकाशित करते हैं और गोपनीय जानकारी को सार्वजनिक करते हैं. यह रवैया स्वस्थ आलोचना को विकसित करने की राह में रोड़ा ही अटकाएगा.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार