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गीतांजलि को नोबेल के सौ साल

६ मई २०१३

वो किताब बांग्ला भाषा में 1910 में प्रकाशित हुई. दिग्गज ब्रिटिश कवि यीट्स के पास उसका अंग्रेजी अनुवाद पहुंचा 1912 में और किताब ने ऐसा करिश्मा किया कि अगले ही साल यानी 1913 में उसे साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिल गया.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि दुनिया भर में लोकप्रिय हो गई, टैगोर का नाम और भारत का नाम भी. वो नोबेल जीतने वाले पहले गैर यूरोपीय, पहले एशियाई लेखक कहलाए. गीतमाला से भरी किताब भारतीय जनमानस में अपनी एक अमिट उपस्थिति बना गई. गीतांजलि का नोबेल तक का ये सफर नाटकीय था लेकिन कहानी इतनी ही नहीं थी.

टैगोर उस समय शांतिनिकेतन में थे और छात्रों को एक प्रशिक्षण ट्रिप के लिए लेकर जा रहे थे कि तारघर का कर्मचारी दौड़ता हुआ उनकी बग्घी की ओर आया. तार तो मामूली नहीं होते, फिर भी टैगोर ने बिना पढ़े उसे जेब में रख दिया, साथ बैठे एक अंग्रेज सज्जन से रहा नहीं गया तो उन्होंने टैगोर को वो तार पढ़ लेने को कहा. पढ़ते ही टैगोर को सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि ये नोबेल पुरस्कार की सूचना थी जो ब्रिटेन से उनके प्रकाशक ने तार की थी. रवींद्रनाथ पुरस्कार लेने खुद स्टॉकहोम नहीं गए. ब्रिटिश राजदूत ने ये सम्मान लिया फिर उसे टैगोर के घर बंगाल पहुंचा दिया गया. टैगोर ने कोई लिखित भाषण भी नहीं भेजा था. टेलीग्राम से धन्यवाद के चंद शब्द बस. कुछ साल बाद 1921 में टैगोर अपनी पश्चिम की यात्रा में स्टॉकहोम भी गए और वहां फिर उन्होंने अपना आभार एक भाषण के रूप में प्रकट किया जिसमें उन्होंने अपने कवि बनने की दास्तान का जिक्र किया, ये बताया कि कैसे वो युवा उम्र में अकेलेपन और अजीब तरह की कशमकश के शिकार थे और कैसे उन्होंने इन भावनाओं से छुटकारा पाया और बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल खोलने का फैसला किया. उन्होंने गीतांजलि की रचना प्रक्रिया के बारे में भी बताया कि कैसे छात्रों की उमंगों, हलचलों और मासूमियत के बीच उन्होंने गीतांजलि लिखना और गाना शुरू किया. और कैसे चटपट इसका अंग्रेजी अनुवाद भी कर डाला और कैसे उसे लेकर पश्चिम की ओर चल पड़े. पहला पड़ाव स्वाभाविक रूप से ब्रिटेन को बनाते हुए. रचना प्रक्रिया के अलावा टैगोर ने उस मौके का इस्तेमाल शांतिनिकेतन की अहमियत बताने के लिए भी किया था.

कहा तो ये भी जाता है कि गीतांजलि को मिला पुरस्कार असल में ब्रिटिश हुकूमत की एक सामरिकता का हिस्सा था. इस सामरिकता की जड़ें अंग्रेजों के अपने वर्चस्व, भारतीय सांस्कृतिक पुनरुत्थान, गांधी के संघर्ष, कांग्रेस के उदय और हिंदू मुस्लिम एकजुटता और उसके बिखराव तक फैली हुई थीं. खैर, गीतांजलि की विश्व पहचान के लिए टैगोर ने कड़ी मेहनत की थी जिसमें उनका 'जनसंपर्क' भी शामिल था. इस अविश्वसनीय श्रम का एक प्रमाण तो उनके अंग्रेजी अनुवाद से ही मिल जाता है. गीतांजलि का ये अनुवाद ही उन्होंने यीट्स को सौंपा था जिसे पढ़ने के बाद जैसा कि कहा जाता है यीट्स तो हक्के बक्के ही रह गए. और आखिरकार गीतांजलि की कविताओं की दीवानगी में जा डूबे. इसी दीवानगी की एक गहरी झलक गीतांजलि के लिए उनकी लिखी भूमिका में मिलती है जिसमें यीट्स ने टैगोर के आत्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व का अद्भुत खाका खींचा. यीट्स के मुताबिक इस किताब ने उन्हें इतना मुतास्सिर किया कि "समझ नहीं आता कि ये साहित्य है या धर्म." यीट्स के मुताबिक गीतांजलि के अनुवाद की पांडुलिपि लिए वो दिनों दिनों फिरते रहते थे, रेलवे स्टेशनों पर पढ़ते थे, बसों में और रेस्तरां में, बाज दफा उसे बंद कर देते थे कि कहीं कोई देख न ले कि किस चीज ने उन पर इतना जादू कर दिया है.

Blogger Rumela Sengupta
स्मृतियों में टैगोरतस्वीर: privat

ऐसे मोहित हो जाने वाले यीट्स अकेले नहीं थे. उस दौर में, उसके बाद और आज तक टैगोर से प्रेम करने वालों और उनका अन्वेषण करने वालों की भरीपूरी पीढ़ियां हैं. गीतांजलि को नोबेल मिलने के बाद सहसा ही टैगोर की मांग पश्चिम में बढ़ गई. लिखने की पेशकशें आती रहीं. लेकिन टैगोर अंग्रेजी में लिखने से हिचकते रहे और उन्होंने अपनी मातृभाषा में ही लिखना पसंद किया. एक बात ये भी थी कि टैगोर इतने परफेक्शनिस्ट मिजाज के आदमी थे कि दूसरों के अनुवादों पर उनका भरोसा कम था. और ये तो माना ही जाता है कि गीतांजलि का जो अनुवाद टैगोर ने किया था वो इतना प्रामाणिक और विश्वसनीय है कि मौलिक रचना अंग्रेजी की ही जान पड़ती है.

टैगोर जितना भारतीय शास्त्रीयता की गहनता के चिंतक थे उतना ही आधुनिकतावाद के पैरौकार भी. उनके जीवन और लेखन में प्राचीनता से नवीनता की ओर और फलसफे से व्यवहार की ओर निरंतर आवाजाही है. एक आवाजाही वहां दर्द से दरिया तक की भी है. टैगोर ने गीतांजलि को लिखते हुए लगता है अपनी सृजनात्मक सामर्थ्य का सर्वस्व उड़ेलने की कोशिश की है. अपने तमाम दुखों, द्वंद्वों, विरोधाभासों, और यातनाओं को जैसे उन्होंने एक लिरिकल अनुभव में बदल दिया है. गीतांजलि को इन सौ सालों में न जाने कितने तरीकों से कितनी कितनी बार समझने की कोशिश की गई, अपने अपने ढंग से सबने देखा, अपनी व्याख्याएं दीं, कितनी कलाओं में गीतांजलि रूपायित हुई और आगे होती रहेगी. गीतांजलि प्रकृति का ही कोई अटूट भाव लगती है, अपने अपने वक्तों में जिसके पास देर सबेर सभी पहुंचते हैं.

टैगोर की गीतांजलि आखिर है क्या. गीतांजलि यानी "गीत-उपहार" की एक अदद किताब या प्रेम, दर्शन, प्रकृति और अध्यात्म का एक मिलाजुला अनुभव या एक अतृप्त अनुभूति है, एक तलाश और एक छटपटाहट खुद में डूब जाने की, या वो प्रकृति के रंगों को आत्मसात कर उस अनुभव को अभिव्यक्त करने की विलक्षणता है. एक गतिशील विचार. एक अपनी ही तरह का प्रवाह. गीतांजलि असल में एक ओर आत्मा, ईश्वर और प्रेम की तलाश में डोलती एक करुण पुकार है तो दूसरी ओर वो मानवीय गरिमा, जिजीविषा, उत्थान और सरोकार का निर्भीक और स्पष्ट आह्वान भी. इसलिए वो जितना खुद को संबोधित है उतना ही अखिल विश्व, अखिल समाज को भी. इसकी एक मिसाल कुछ इस तरह से हैः

वियोग का दंश फैला है पूरी दुनिया में उसी से अनंत आकाश पर उभरते हैं असंख्य आकार.

यही वो दुख वियोग का जो सारी रातों को एक तारे से दूसरे तारे तक खामोशी में निहारता है और जुलाई के बरसाती अंधकार में सरसराती पत्तियों के बीच बन जाता है गीत.

यही वो फैलता जाता दर्द है जो प्रेम और इच्छाओं में पैबस्त है, मनुष्यों के घरों की वेदनाओं और खुशियों में, और यही है जो मेरे कवि के हृदय में घुल जाता है और बहने लगता है गीतो में.

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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