गाय बैलों की दौड़
बंगाल के ग्रामीण इलाकों में गाय बैलों की दौड़ लोगों को खूब लुभाती है. सालों पुरानी परंपरा पशु संरक्षण के नियम कायदों का ख्याल नहीं करती लेकिन फिर भी इसे रोकना मुमकिन नहीं
बारिश की शुरूआत का जश्न
पश्चिम बंगाल के गांवों में जुलाई से अक्तूबर के बीच इस तरह का मंजर दिखाई देना कोई अजीब बात नहीं. गाय बैलों की दौड़ का आयोजन मॉनसून की खुशी मनाने का एक तरीका है.
दौड़ की जरूरत
गांव के बड़े बूढ़े बताते हैं कि पहली बारिश के बाद मिट्टी की ऊपरी परत खुरचने के लिए इस दौड़ का आयोजन किया जाता था, जो कि अब एक परंपरा बन गई है.
मुकाबले पर दांव
इन दिनों भूमि पर तरह तरह के यंत्रों और ट्रैक्टरों की मदद से यही काम किया जाता है. अब यह दौड़ सालाना परंपरा का हिस्सा है जिसमें पशुओं के मालिकों के बीच मुकाबला होता है और लोग जीतने वाले पर दांव लगाते है.
दर्शकों की कमी नहीं
कुल मिला कर दौड़ को बड़ी संजीदगी और चाव से देखने वालों की भी कोई कमी नहीं है.
बच्चों के लिए खेल
गांव के बच्चों के लिए भी यह रोचक खेल है.
दूर से मजा
गांव की महिलाएं, लड़कियां और बच्चे भी इसका मजा लेते हैं लेकिन जरा दूर से.
बचना जरूरी है
मुकाबले वाले मैदान से जरा दूर रहना ही ठीक रहता है क्योंकि दौड़ में पशु बेतहाशा भाग रहे होते हैं. ऐसी अटकलें हैं कि कई मालिक अपने पशुओं को नशा भी करा देते हैं.
रेस के बाद नहाना
शायद इसी लिए रेस खत्म होने पर उन्हें नदी में ले जाया जाता है और कोशिश की जाती है कि वे जितना ज्यादा उसके अंदर रहें बेहतर है, ताकि नशे का असर खत्म हो और थकान भी उतरे.
प्रतिबंधित रेस
पशु संरक्षण संस्थाओं के जोर देने पर सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की रेसों पर प्रतिबंध लगा दिया है. इन रेसों में पशुओं के साथ अमानवीय व्यव्हार किए जाने के भी आरोप हैं.
रुकती नहीं रेस
क्षेत्रीय लोगों की इसमें दिलचस्पी इस तरफ भी इशारा करती है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी इन रेसों को इतनी आसानी से रोकना मुमकिन नहीं है.